रविवार, 27 नवंबर 2016

क्यों हर बार ट्रेन पटरी से उतर जाती है?

क्या हमारे देश में लोगों की जान सस्ती है? क्या हमारे पास रेलवे को विकसित करने के पर्याप्त संसाधन नहीं हैं? क्या आधुनिक रेलवे को चलाने के लिए सक्षम नौजवान नहीं हैं? या फिर देश के शासक वर्ग की मंशा कुछ और है?
20 नवंबर, रविवार को इन्दौर पटना एक्सप्रेस ट्रेन भयावह दुर्घटना का शिकार हो गयी. इस दुर्घटना को टाला जा सकता था। इसमें 145 लोग मारे गए, 58 लोग मरणासन्न स्थिति में हैं और 145 लोग घायल हुए हैं। रेलवे दुर्घटना के इतिहास में एक और काला दिन जुड़ गया।
       लेकिन वे परिवार जिन्होंने अपनों को खोया है। वे इस दुर्घटना को कभी नहीं भूल पाएंगे। उनके लिए यह महज एक दुर्घटना नहीं है। जीती-जागती, हँसती-खेलती ज़िंदगियों का सवाल है। कोई भी मुआवजा और जांच रिपोर्ट उन्हें इस दुर्घटना से पहले जैसा एहसास नहीं करा सकती। सोचिए एक माँ जिसने अपना बेटा खो दिया। एक मासूम जिसने अपना पिता खोया। एक बेसहारा औरत जिसने परिवार चलाने वाले पति को खो दिया। ऐसी ही सैकड़ों कहानियाँ इस दुर्घटना के साथ जुड़ी हुई हैं।
       अब सारी रेल दुर्घटनाओं के विश्लेषण से तथ्य निकलता है कि इन दुर्घटनाओं में ज़्यादातर गरीब लोग ही मारे जाते हैं। ज़्यादातर दुर्घटनाएँ गैर-वीआईपी गाड़ियों में ही होती हैं। राजधानी और शताब्दी में नहीं। क्या इसका मतलब है राजधानी और शताब्दी पूर्ण रूप से सुरक्शित हैं? जी नहीं। पर कुछ हद तक। क्योंकि रेल पटरी और सिगनल वीआईपी और गैर वीआईपी गाड़ियों के लिए एक जैसे ही होते हैं। तो अंतर कहाँ है? अंतर है चेतावनी बरतने का। वीआईपी गाड़ी से पहले रेल पटरी की देखभाल का। वीआईपी गाड़ियों के कोच की गुड़वत्ता का। इनमें एलएचबी कोच होते हैं।
       लोगों के मरने की खबर के साथ ही उनकी जिंदगी की बोली लगाने वाले मुआवजे की घोषणा कर दी गई है। साथ ही एक जांच आयोग बैठेगा जो कुछ महीने बाद अपनी रिपोर्ट सौंप देगा। तब तक जनता के दिमाग से यह घटना ओझल हो जाएगी। फिर एक नई दुर्घटना घटेगी। यह चक्र चलता रहता है। दुर्घटना-मुआवजा-जांच आयोग रिपोर्ट-दुर्घटना। जो रिपोर्ट आएगी उसका उपयोग तभी है, जब उससे निकले निष्कर्षों को लागू किया जाए। नहीं तो रेलवे के रजिस्टरों में धूल चाटने के लिए रिपोर्ट बनाना सरकारी खर्च बढ़ाना है। 2011 में 10 जुलाई को कानपुर के पास फ़तेहपुर में एक दुर्घटना हुई थी। इसमें भी लोगों के दुख-दर्द दिल को दहला देने वाले थे। उस समय रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने नारा दिया- “सुरक्षा, सुरक्षा, और सुरक्षा”। वाकई इतनी उन्नत तकनीकी के दौर में रेलवे का लगातार दुर्घटना ग्रस्त होना पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।
हाल की दुर्घटना पर मौजूदा रेल मंत्री कह रहे हैं कि - “अपराधी के खिलाफ कठोर से कठोर कार्यवाही की जाएगी”। कौन है अपराधी? क्या हम अंग्रेजों पर इल्जाम लगा रहे हैं कि आपने इतनी खराब रेल बनाई कि आजादी के 70 साल भी ठीक से नहीं चल सकी? नहीं। तो क्या वह गरीब, ठेके पर काम करने वाला गैंगमेन है अपराधी। जिसे यह भी नहीं पता कि पटरी में लगे लोहे की भार ढोने की क्षमता क्या है और उसे कब बादल देना चाहिए। तो फिर क्या भाजपा सरकार अपराधी है? नहीं। रेलवे का पतन रातों-रात नहीं हुआ है। इसके पतन में अब तक सत्ता में आने वाली सभी सरकारों ने बारी-बारी से भूमिका निभाई है। मौजूदा सरकार भी उसी की एक कड़ी है। राजनीतिक पार्टियों ने रेलवे को राजनीतिक साधन के तौर पर इस्तेमाल तो किया, लेकिन इसे सार्वजनिक संपत्ति और यातायात के सबसे अच्छे साधन के रूप में विकसित नहीं किया।
       इतनी खस्ता हालत होने के बावजूद भारतीय रेलवे सस्ता, सुगम और व्यापक यातायात का सार्वजनिक साधन है। लेकिन इसे लगातार खत्म किया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है इसके पीछे की मंशा खुद प्रधानमंत्री बड़े ज़ोर-शोर और गर्व के साथ अपने भाषणों में रखते हैं- वह है रेलवे का निजीकरण, रेलवे में विदेशी निवेश। भारतीय रेल की मौजूदा समस्या यह है कि यह दिवालिया होने के कगार पर है। जल्दी ही भारतीय रेल को तनख़्वाहें देने के लिए उधार की जरूरत पड़ने वाली है। इस बार इसका कुल घाटा 25 हज़ार करोड़ का है। रेलवे के पास पुरानी पड़ गई संपत्ति जिसमें- रेल पटरी, सिगनल सिस्टम, पटरी जाँचने वाली छोटी गाडियाँ को बदलने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं है। साल-दर-साल पुरानी संपत्ति को बदलने के लिए 20 से 25 हज़ार करोड़ की जरूरत होती है। 2016 के बजट में रेलवे को मिला 3200 करोड़। इतनी कम पूंजी के चलते बेकार हो गये रेलवे पार्ट्स के बदलाव स्थगित कर दिया गया है। इस तरह सुरक्षा से समझौता रेलवे का चरित्र बनता जा रहा है। रेलवे के अंदर मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए खान-पान की विविधता, जैसे पनीर, चिकिन और पीज़ा तक को मेनू में रखा गया है। वाई-फाई पर पूरा ज़ोर है। लेकिन सुरक्षा के मानकों से लगातार समझौता किया जा रहा है. बुलेट ट्रेन के लिए तो जापान और चीन के सामने नाक रगड़ने तक को तैयार हैं। माल भाड़े को पिछले साल के मुक़ाबले 15 फीसदी कम कर दिया गया है। वहीँ यात्री किराए में भारी वृद्धि की गयी है अन्य अनेक तरीकों से लोगों की जेबें खाली की जा रही हैं. नए एलएचबी कोच को बदलने कि प्रक्रिया कछुए से भी सुस्त रफ्तार से चल रही है। पटरी में पैदा हुई दरारों को जाँचने की तकनीकी उपलब्ध है. लेकिन पूंजी के अभाव में लागू नहीं हो सकी है।
       गौर करने की बात है कि यदि इंदौर-पटना एक्सप्रेस में साधारण कोच के बजाय एलएचबी कोच होते तो इतनी जानें नहीं जातीं। दूसरी बात यदि पटरी की दरारों को जाँचने की तकनीकी का उपयोग किया जाता तो एक भी जान नहीं जाती। प्रधानमंत्री जापान घूमने के साथ कुछ अच्छी तकनीक भी लाते तो बेहतर होता. लेकिन जापान अपनी तकनीकी के बल पर दुनिया पर राज करने का सपना देखता है, भला वह भारत को अपनी उन्नत तकनीक देकर अपने एकाधिकार को खोना क्यों चाहेगा?  हाँ यह सच है कि भारत की तरह जापान में भी लाखों लोग रेल में यात्रा करते हैं। वे तकनीक, संसाधन और अपने कुशल नौजवानों के दम पर 1964 से बिना एक भी दुर्घटना के रेल चला रहे हैं। हमारे तथाकथित नेता हैं कि इतने नौजवान, तकनीशियन, और संसाधन होने के बावजूद रेलवे को उजाड़कर देशी-विदेशी पूँजीपतियों के बीच बंदर बाँट की योजना बना रहे हैं। नौजवानों की नई भर्ती करके, नई रेल बिछाकर, नए एलएचबी कोच लगाकर रेलवे को ज्यादा जवाबदेह बनाने के बजाय इसकी अकूत संपत्ति को मुनाफे के भूखे भेड़ियों को चारे के रूप में देने की योजना बनाई जा रही हैं।  
-राजेश चौधरी।

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