सोमवार, 28 दिसंबर 2015

अमरावती-- पर्यावरण विनाश की कीमत पर स्वर्ग का निर्माण

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश राज्य के बंटवारे के बाद राजधानी का सवाल विवाद का मुद्दा बन गया. तेलंगाना को राजधानी के रूप में हैदराबाद के साथ ही 15 जिले तथा समुद्र तटीय नदी किनारे के सम्पन्न इलाके मिले जबकि आंध्र प्रदेश को हैदराबाद के इस्तेमाल की अनुमति केवल १० साल के लिए दी गयी. इसी अवधि में उसे अपनी अलग राजधानी बना लेनी है. यानी जिस हैदराबाद को चंद्रबाबू नायडू ने परम्परागत शहर से वैश्विक सोफ्टवेयर केन्द्र में बदल दिया, उसे उन्हें १० सालों में छोड़ कर नया ठिकाना ढूँढना पड़ेगा. नायडू ने साफ्टवेयर केन्द्र विकसित करने की अपनी ख्याति को भुनाते हुए सिंगापुर से एक समझौता किया हैं, जिसके तहत वहाँ की कम्पनियाँ निजी-सार्वजानिक  साझेदारी में 7500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 33 हजार हेक्टेयर जमीन पर अमरावती शहर का विकास करेंगी. यही शहर आंध्र प्रदेश की राजधानी होगी. इससे अर्थव्यस्था का ठहराव टूटेगा और बदले में वहाँ के निवासियों को जमीन अधिग्रहण,विस्थापन और रोजी-रोजगार में भारी उथल-पुथल का सामना करना पड़ेगा.
पिछले दिनों केंद्र की भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी किया, तो पूरे देश-भर में उसका विरोध हुआ. जनान्दोलनों के दबाव में सरकार ने इस अध्यादेश को वापस ले लिया. इसे ध्यान में रखते हुए नायडू ने जमीन अधिग्रहण के लिए सुई जेनेरिस नाम की एक योजना बनाई हैं. इसके तहत उपजाऊपन और मौके-मुआईने के हिसाब से किसानों को एक एकड़ जमीन के लिए 1000,1200 या 1500 वर्ग गज का प्लाट दिया जायेगा. अमरावती शहर विजयवाड़ा से 40 किलोमीटर दूर तुल्लार मंडल में बनाया जायेगा. भूमि अधिग्रहण की इतनी बेहतरीन योजना को अंजाम देने के लिए इलाके में सरकार ने धारा 144 लगा दी है. भारतीय दण्ड संहिता की धारा के अनुसार अगर 10 से अधिक व्यक्ति उस प्रतिबन्धित इलाके में एक साथ इकट्ठा होंगे तो उसे दंगा माना जायेगा और आरोपियों को तीन साल की सजा या जुर्माना हो सकता हैं. जाहिर है किसान तीन फसली उपजाऊ जमीनें केवल कुछ हजार वर्ग गज प्लाट के लिए अपनी मर्जी से नहीं देंगे क्योंकि केवल प्लाट मिल जाने से उनकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी? वे उजड़ कर भूमि हीन मजदूर बन जायेंगे. जाहिर है कि वे इस परियोजना का विरोध करेंगे. इस को देखते हुए धारा 144 लगायी गयी हैं. जिसके दमपर किसानों से जबरन जमीनें छिनने की कवायद शुरू हो गयी है. किसान और गैर खेतिहर आबादी ने इसका विरोध भी शुरू कर दिया है.
इलाके में छोटे दुकानदार, ठेले-खोमचे वाले बहुत खुश हैं, क्योंकि जब यहाँ सड़कें और बिल्डिंगें बनायी जाएँगी  तो उनकी दुकान भी चल पड़ेगी. लेकिन इस योजना का असली फायदा कार्पोरेट और उद्योग जगत को होगा, उनकी ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में एक धक्का लगेगा. सीमेंट, सरिया, कंकरीट और ऑटो उद्योग धड़ल्ले से चल पड़ेगे. यह योजना नवउदारीकरण के उस मॉडल पर आधारित हैं जिसके तहत पिछले 25 सालों से देश में विकास की बयार बहायी जा रही है. दुनिया-भर में इस मॉडल के आधार पर जहाँ भी विकास का कार्य किया गया, वहाँ मुट्ठीभर लोगों की संम्पति में बेतहासा बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इससे गरीबी दूर करने के दावे खोखले ही साबित हुए हैं. इतनी बड़ी परियोजना के लिए जब पुलिस-प्रशासन के बल पर विशाल भूभाग का अधिग्रहण किया जायेगा तो खेतिहर और गैर-खेतिहर लोगों के विस्थापन और दुर्दिन के बारे में कौन सोचेगा? क्या राष्ट्र उनके साथ खड़ा होगा? यह एक अनुत्तरित सवाल नहीं है. इससे पहले भी देश स्तर की परियोजनाओं में गैर-कृषक आबादी को हाशिये पर धकेल दिया गया. सड़कों के किनारे और रेलवे लाइनों के आस-पास झुग्गी-झोपड़ियों में गरीबी और तंगहाली के दिन गुजारते लोग आखिर कौन हैं? वे विकास की आँधी में उजाड़ दिए गए लोग हैं, जिनके लिए इस विकास मॉडल में कोई जगह नहीं.
आधुनिक तरीके से अमरावती शहर के निर्माण के लिए अगले कुछ महीनों में एक करोड़ से भी अधिक पेड़ काटे जायेंगे  यह न केवल वन संरक्षण नियम का खुला उलंघन हैं. जिसके अनुसार काटे गये वन क्षेत्र से दुगुनी जमीन पर वन लगाना जरुरी है,  बल्कि विविधतापूर्ण जंगल को नष्ट  करना भी है. जिसमें सागौन, नीम और चन्दन के पेड़ों के साथ छोटे तालाब, पेड़-पौधे, जानवर, पक्षी और तमाम जीव-जंतु ख़त्म हो जायेंगे जो किसी इलाके में पर्यावरण संतुलन के लिए बहुत जरूरी होते हैं. इससे होने वाले पर्यावरण विनाश की बस कल्पना की जा सकती है. हाल में चेन्नई बाढ़ ने सैकड़ों लोगों को निगल लिया और हजारों लोगों से आसरा छीन लिया. वहाँ पीने के पानी और गटर के पानी में कोई अंतर नहीं रह गया है. सरकारी सहायता के नाम पर बस कुछ खाने के पैकेट बाँटे गये. अमरावती शहर बसाने में पर्यावरण कानूनों की पूरी तरह धज्जी उड़ाते हुए विनाश को न्यौता दिया जा रहा है. पर्यावरण विनाश के चलते बाढ़, सूखा, बीमारी और विस्थापन की समम्स्या से लोगों की जिन्दगी दूभर हो जायेगी. लेकिन आज शासक वर्ग के पास इससे अलग विकास का कोई दूसरा मॉडल नहीं है जिसमें पर्यावरण का विनाश न हो और गरीबों को विकास की राह का रोड़ा या दुश्मन न समझा जाये. विकास के ऐसे मॉडल के लिए, जिसमें भारत की व्यापक जनता की सहभागिता हो और प्रकृति का संरक्षण भी हो, हमें एक नए समाज का निर्माण करना होगा.                

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

ग्रामीण परिवारों के सर्वे के तथ्य

सोसियो-इकोनामिक कास्ट सेन्सस (एस ई सी सी ) यानी सामाजिक-आर्थिक जाति आधारित जनगणना की ताजा रिपोर्ट के अनुसार (2012&2013)

 49 प्रतिशत परिवार गरीब हैं और 51 प्रतिशत अस्थाई शारीरिक श्रमिक।
 इस सर्वे ने वंचना के 7 सुचक इस्तेमाल किये। जिनमें कच्चा मकान, शारीरिक श्रम में लगा भूमिहीन परिवार, बिना कामगार पुरुषों के महिला मुखिया परिवार, बिना युवा कामगार के परिवार और सभी एस सी/एस टी परिवार शामिल हैं।
  2-37 करोड़ परिवार एक रुम के कच्चे मकान में रहते हैं जो कुल ग्रामीण परिवारों का 13-25 प्रतिशत है। कुल ग्रामीण परिवार 17-91 करोड़ हैं। 30 प्रतिशत ग्रामीण परिवार के पास कोई जमीन नहीं और वे केवल शारीरिक श्रम पर गुजारा करते हैं ।
  अगर मोदी सरकार वास्तविकता को ध्यान में रखते हुये गरीबी रेखा का निर्धारण करे तो गरीबों की संख्या बहुत बड़ी मिलेगी। हाँलाकि कांग्रेस सरकार आँकड़ों में हेरफेर करने से विवादों में घिर गयी थी।
  एक या अधिक सूचक के अनुसार वंचित परिवारों की संख्या 8-69 करोड़ (48-5 प्रतिशत) है।
  कुल दलित और आदिवासी परिवार 3-86 करोड़ (21-5 प्रतिशत)
  कुल महिला मुखिया परिवारों की संख्या 0-69 करोड़ (3-9 प्रतिशत) है।
 ऐसे परिवारों की संख्या 65 लाख (3-6 प्रतिशत) है, जिसमें कोई भी 16 से 59 साल के बीच पुरुष नहीं है ।
 5 करोड़ (27-91 प्रतिशत) परिवारों के पास कोई फोन या मोबाइल नहीं है।
 10-52 लोग तलाकशुदा हैं ।
 1-80 लाख लोग हाथ से मैला साफ करने वाले हैं ।
 11 प्रतिशत परिवार में रेफ्रीजरेटर है। 4-6 प्रतिशत परिवार इनकम टैक्स भरते हैं।
 92 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की आय 10 हजार से कम है।
 तीन चौथाई परिवारों की आय 5000 या उससे कम है।
 9-2 करोड़ किसान है और 8-1 करोड़ खेत मजदूर है।  

  लगभग 79 प्रतिशत आदिवासी परिवार गरीब हैं73 प्रतिशत दलित परिवार गरीब हैं और अन्य 55 प्रतिशत परिवार गरीब हैं।


शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

आर्थिक संकट से यूनान में उहापोह की स्थिति


यूनान की राजनीति में उथल-पुथल जारी है. सबको अचरज में डालते हुए प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी है. उनकी सात महीने पुरानी सरकार का अन्त हो गया है. कुछ दिनों पहले उन्होंने यूरोपीय संघ द्वारा लादी गयी कटौती की शर्तों को स्वीकार कर लिया. जिसके चलते यूरोपीय संघ ने 14.6 अरब डॉलर के बचाव पैकेज को मंजूरी दे दी. इस बात से देशभर में एक नया राजनीतिक तूफ़ान खडा हो गया है क्योंकि 20 जुलाई के जनमत संग्रह में 60 प्रतिशत के विशाल बहुमत ने कटौती और बचाव पैकेज को सिरे से खारिज कर दिया था. इसलिए जब अलेक्सिस सिप्रास यूरोपीय संघ के आगे झुक गये, तो लोगों के बीच विश्वासघात का संदेश गया. उनकी पार्टी के सदस्यों और सरकार के मंत्रियों ने ही विरोध का बिगुल फूंक दिया. अपने कदम को सही साबित करने के लिए उनहोंने फिर से चुनाव का सहारा लिया है.
यूनान लम्बे समय से आर्थिक संकट से जूझ रहा है. देश विदेशी कर्ज के पहाड़ के नीचे कराह रहा है. खजाना खाली हो चुका है. अर्थव्यवस्था के सभी सूचकों की सूइयां उल्टी दिशा में जा रही हैं. बेरोजगारी अपने चरम पर है. मजदूरी गिर रही है. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए यूनान ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लिया था. उस कर्ज की 1.8 अरब डॉलर की किस्त को चुकाने की आखिरी तारीख 30 जून थी. जिसे न चुका पाने के चलते यूनान का आर्थिक संकट सतह पर आ गया. निवेशकों का विश्वास डोल गया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और यूरोपीय संघ ने जनता की सुविधाओं में कटौती के लिए यूनान की सिप्रास सरकार पर दबाव बढा दिया. सिप्रास की सरकार इस वादे के साथ चुनाव जीतकर आयी थी कि वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबावों के आगे नहीं झुकेगी. जन कल्याणकारी योजनाओं को न केवल जारी रखेगी बल्कि जनता को सस्ती चिकित्सा और शिक्षा उपलब्ध करायेगी. लेकिन अर्थव्यवस्था की डावांडोल स्थिति और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव के चलते सरकार में दरार पड़ने लगी. वित्तमंत्री यानिस वेरोफाकिस अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समर्थन में आ गये. प्रधानमंत्री अडिग खड़े थे. विपक्ष का हमला जारी था. विपक्ष का पूँजीवादी धडा सरकार पर लगातार इस बात का दबाव बनाता रहा कि सरकार को देश के सट्टेबाजों और पूंजीपतियों के हित में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे समर्पण कर देना चाहिए. इस उहापोह से निपटने के लिए सिप्रास की सरकार ने 5 जुलाई को जनमत संग्रह का सहारा लिया. जनता ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव को सिरे से खारिज कर दिया. सरकार के साथ एकजुटता दिखाई. वित्तमंत्री को इस्तीफ़ा देना पडा. लेकिन सरकार संकट का समाधान निकल नहीं पा रही थी. व्यवस्था थम सी गयी. दो महीने में ही विपक्ष और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सरकार पर दबाव बनाने में सफल हुए. प्रधानमंत्री सिप्रास ने अपने कदम पीछे खींचते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की गोद में जा गिरे. फिर एक बार देश की राजनीति में खलबली मच गयी.
इन बातों से साफ़ जाहिर है कि यूनान परिवर्तन की पीड़ा से गुजर रहा है. जनता एक नयी व्यवस्था के लिए संघर्ष कर रही है. लेकिन वह चुनावी राजनीति के दायरे को तोड़ पाने में अक्षम है. सिप्रास की समाजवादी सरकार की उहापोह और किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को देखते हुए यह साफ़ पता चलता है कि चुनावी राजनीति का सबसे प्रगतिशील हिस्सा भी प्रेतछाया की तरह दुनिया को अपनी आगोश में लेने वाले आर्थिक संकट से लड़ पाने में अक्षम है. इस व्यवस्था का विकल्प देने में असमर्थ है. व्यवस्था को बदलने के लिए आर्थिक संकट को गहराई से समझने और नवउदारवादी मॉडल के चक्रव्यूह को भेदने की जरूरत है.
-देश विदेश अंक 21 से साभार 

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

दो कोरिया– भाग 1


अपने पड़ोसी चीनी और जापानी लोगों की संस्कृति से अलग कोरिया राष्ट्र अपनी विलक्षण संस्कृति के साथ 3000 सालों से अस्तित्व में है। ये विशेषताएँ चीन, वियतनाम और अन्य देशों सहित एशियाई क्षेत्र के समाजों में अनूठी हैं। पश्चिमी संस्कृतियों में कुछ 250 सालों से कम पुरानी है, उनमें भी इससे मिलतीजुलती चीज नहीं है। 
1894 के युद्ध में जापान ने कोरियाई राजवंश के ऊपर चीन के नियंत्रण को खत्म करके खुद हथिया लिया और उसके राज्य को जापानी उपनिवेश में बदल दिया। इस देश में प्रोटेस्टेंट मत को 1892 में स्थापित किया गया। इसके बाद अमरीका और कोरियाई अधिकारियों के बीच एक समझौता हुआ। दूसरी ओर इसी शताब्दी में धर्म प्रचारकों द्वारा कैथोलिक मत भी फैलाया गया। यह अनुमान है कि दक्षिण कोरिया में करीब 25 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है और उतनी ही जनसंख्या बुद्ध को मानती है। कन्फ्युसियस के दर्शन का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव है। जिसे धर्मान्धतापूर्ण व्यवहार के जरिये नहीं समझाया जा सकता। 

बीसवीं शताब्दी में राष्ट्र के राजनीतिक जिन्दगी में दो महत्त्वपूर्ण व्यक्ति उभरकर आये। पहला, सिंगमन री का जन्म मार्च 1875 में हुआ था और दूसरा, किम इल सुंग 37 साल बाद अप्रैल 1912 में पैदा हुए थे। अलगअलग सामाजिक पृष्ठभूमि से आये दोनों व्यक्तियों का एक दूसरे से सामना उन ऐतिहासिक परिस्थितियों में हुआ जिनका दोनों से कोई लेनादेना नहीं था। ईसाईयों ने जापान की इस उपनिवेशवादी व्यवस्था का विरोध किया था। उनमें से एक सिंगमन री एक सक्रिय प्रोटेस्टेंट थे। कोरिया की स्थिति तब बदल गयी, जब जापान ने 1910 में इसके राज्य क्षेत्र को अपने में मिला लिया। वर्षों बाद 1919 में री को निर्वासित अस्थायी सरकार का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया, जिसका मुख्यालय चीन के संघाई में था। उन्होंेने हमलावरों के विरुद्व कभी भी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। जिनेवा के लीग ऑफ नेशन्स ने उन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। 
            जापानी साम्राज्य कोरिया वासियों का बर्बरता से दमन करता था। राष्ट्रवादियों ने जापान की उपनिवेशवादी नीति के विरुद्ध हथियार उठा लिया और 1890 के दशक के अन्त तक राष्ट्रवादियों ने जापान की उपनिवेशवादी नीति के विरुद्ध हथियार उठा लिया और उत्तर के पर्वतीय इलाकें के एक छोटे से क्षेत्र को आजाद कराने में सफल हुए।
            किम इल सुंग, जिनका जन्म प्योन्गयांग के बगल में हुआ था, वह 18 साल की उम्र में जापानियों से लड़ने के लिए कोरियाई कम्युनिस्ट गुरिल्ला से जुड़ गये। उन्होंने अपने सक्रिय क्रान्तिकारी जीवन में मात्र 33 वर्ष की युवावस्था में ही उत्तरी कोरिया में जापान विरोधी लड़ाकू दस्ते का राजनीतिक और सैनिक नेतृत्त्व का पद सम्भाल लिया। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में अमरीका ने कोरिया के भाग्य का फैसला किया। उसने संघर्ष में तब भाग लिया, जब उसी के द्वारा तैयार उगते हुए सूरज के साम्राज्य ने उस पर आक्रमण कर दिया। कम्मोडोर पेरीे ने उस मुल्क के मजबूत सामन्ती दरवाजे को उन्नीसवीं शताब्दी के पहले आधे दशकों में खोल दिया था। उसने अमरीका से व्यापार करने से मना करने वाले इस एशियाई विचित्र देश पर अपनी तोपें तान दी थी। 
जैसा कि अन्य मौके पर मैंने पहले ही समझाया था कि उम्दा शिष्य कुछ समय बाद एक शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी बन जाता है। दशकों बाद क्रमश: चीन और रूस पर हमले करने के साथसाथ जापान ने कोरिया पर अधिपत्य स्थापित कर लिया। फिर भी वह चीन की कीमत पर प्रथम विश्व युद्ध में एक चतुर सहयोगी था। उसने शक्ति संचित किया और उसे एशिया की किस्म के फासीवादी नाजीवाद में बदल दिया और 1937 में चीनी राज्य क्षेत्र को हड़़़पने का प्रयास किया और दिसम्बर 1945 में अमरीका पर आक्रमण कर दिया, उसने युद्ध को दक्षिणपूर्व एशिया और ओसिनिया तक फैला दिया। 
ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड, पुर्तगाल के उपनिवेश के इलाके हाथ से निकल गये और अमरीका विश्व का सबसे शक्तिशाली देश उभर कर आया, जिसका प्रतिद्वन्द्वी केवल सोवियत संघ था, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों के आक्रमण के चलते बहुत अधिक इंसानों और संसाधनों की बर्बादी झेली थी। 1945 में जब विश्व में हत्याकाण्ड का ताण्डव खत्म हो गया, चीन की क्रान्ति सम्पन्न होने वाली थी, उस समय जापान विरोधी सामूहिक संघर्ष और तीखा हो गया था। इसके बाद माओ, हो ची मिन्ह, गाँधी, सुकरनों और दूसरे अन्य नेताओं ने उस विश्व व्यवस्था की पुनर्स्थापना के विरुद्ध संघर्ष किया जो पहले ही टिकाऊ नहीं रह गयी थी। 
ट्रूमैन ने जापान के दो नागरिक शहरों पर परमाणु बम गिरा दिया, यह एक भयावह विनाशकारी नया हथियार था जिसकी उपस्थिति के बारें में अमरीका ने अपने सहयोगी सोवियत संघ को भी कोई जानकारी नहीं दी थी जो फासीवाद के विनाश का सबसे बड़ा हिस्सेदार था। जापानियों के मजबूत प्रतिरोध ने जापानी द्वीप ओकिनावा में लगभग 15,000 अमरीकी सैनिकों की जिन्दगी ले ली। इस तथ्य के बावजूद नरसंहार के इस कार्य को कोई न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता। जापान पहले से हार चुका था और वह हथियार जापान के सैन्य निशाने पर गिराया गया था, जिसने जल्द या देर में और अधिक अमरीकी सैनिकों के हताहत हुए बिना जापानी सैनिकों के बीच उसी तरह की निराशा की स्थिति पैदा कर दी होती। यह एक वर्णनातीत आतंकवादी कार्यवाही थी। 
जब यूरोप में लड़ाई बन्द हो गयी, उस समय अपने वादे के मुताबिक सोवियत सैनिक मन्चूरिया और कोरिया की ओर बढ़ रहे थे। मित्र राष्ट्रों ने पहले से यह तय कर लिया था कि प्रत्येक सेना कहाँ तक आगे बढ़ेगी। विभाजन रेखा कोरिया के मध्य होगी जो यालू नदी और प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर के बीच बराबर दूरी पर है। अमरीकी सरकार ने जापान के साथ समझौते में ऐसे नियम थोपे जो आत्मसमर्पण करने वाले जापानी सैनिकों को अपने ही राज्यक्षेत्र में संचालित करते। तथाकथित तौर पर जापान अमरीका द्वारा कब्जे में ले लिया गया। शक्तिशाली जापानी सेना की बड़ी संख्या जापान से संलग्न कोरिया में रह गयी। स्थापित विभाजन रेखा 38 समानान्तर के दक्षिण में अमरीका का स्वार्थ हावी हो गया। सिंगमन री एक ऐसे नेता थे जिन्हें अमरीकियों का समर्थन था और साथ ही जापानियों का भी खुला सहयोग था। उन्हें अमरीकी सरकार द्वारा राज्य के उस क्षेत्र में भेजा गया। इस प्रकार उन्होंने 1948 का जद्दोजहद भरा चुनाव जीत लिया। इसी साल सोवियत संघ की सेना उत्तरी कोरिया से लौट गयी।
            25 जून 1950 को देश में युद्ध शुरु हो गया। यह अभी अस्पष्ट है कि किसने पहली गोली चलायी या तो वे उत्तर के लड़ाके थे या अमरीकी सिपाही जो उन सैनिकों के साथ थे जिनका चयन री ने किया था। उस टिप्पणी का कोई मतलब नहीं यदि कोई उसे केवल कोरियाई नजरिये से विश्लेषित करे। किम इल सुंग के सिपाही पूरे कोरिया की आजादी के लिए जापानियों से लड़े। उनके सैनिक अद्वितीय वीरता से सुदूर दक्षिण की ओर आगे बढ़े। जहाँ पर यांकी (अमरीकी) ताकतें अपने लड़ाकू वायुयानों के जबरदस्त सहयोग से अपना बचाव कर रही थीं। मैकआर्थर प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र से अमरीका के सुरक्षा बलों का सेनानायक था, उसने आदेश देने का फैसला किया कि समुद्री जहाजों को उन उत्तरी ताकतों के पीछे इन्चियान में उतारा जाये जो उस समय जवाबी हमला करने की स्थिति में नहीं थे। 
हवाई आक्रमणों के भीषण सर्वनाश के बाद प्योंगयांग यांकी ताकतों के हत्थे चढ़ गया। इस घटना से प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र में पूरे कोरिया को हड़पने का अमरीकी सैन्य कमाण्डर का विचार मजबूत हुआ, माओं त्से तुंग के नेतृत्व में चीन की जन मुक्ति सेना ने च्यांग काई शेेक की यांकी समर्थक उस सेना को बहुत बुरी तरह हराया जिसे अमरीका द्वारा भरपूर आपूर्ति और समर्थन प्राप्त था। ताई पेई और अन्य छोटेछोटे द्वीप जिसमें कुओमिन्तांग के सैनिकों ने शरण ली थी जिन्हें छठीं नौ सेना के जहाजों के जरिये वहाँ पहुँचाया गया था, इन द्वीपों को छोड़कर बाकी पूरे महाद्वीपीय और तटवर्ती क्षेत्र को आजाद करा लिया गया। 
इतिहास में उस समय क्या घटा, इसे आज हम अच्छी तरह जानते हैं। इस बात को भुलाना नहीं चाहिए कि बोरिस येल्तसीन ने अन्य चीजों के साथ सोवियत संघ की सारी उपलब्धियों को वाशिंगटन के हवाले कर दिया। 
जब असली अनिवार्य संघर्ष कोरियाई क्षेत्र में छिड़ गया, उस स्थिति में अमरीका ने क्या किया ? उसने उत्तरी भाग को एक आक्रामक देश के रुप में चिन्हित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं द्वारा समर्थित हाल ही में बनायी गयी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने एक मसौदा पारित किया कि पाँचों सदस्य में से कोई वीटों नहीें कर सकता। ठीक इन्हीं महिनों में सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद से चीन को अलग रखने का विरोध किया, जबकि अमरीका 0–3 प्रतिशत क्षेत्र और 2 प्रतिशत जनसंख्या पर शासन करने वाले चियांग काई शेेक को परिषद के सदस्य की मान्यता देता था और जो वीटो के अधिकार का इस्तेमाल कर सकता था। इस प्रकार के मनमानीपन के चलते रुसी प्र्रतिनिधि सुरक्षा परिषद में अनुपस्थित रहे। फलस्वरुप सुरक्षा परिषद इस बात पर सहमत हो गया कि आरोपित युद्धोन्मत कोरियाई जनवादी गणतंत्र के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की सैन्य कार्यवाही ठीक है।
            चीन पूरी तरह से इस संघर्ष से बाहर था, इससे अपने देश की पूर्ण मुक्ति के लिए जारी उसकी लड़ाई प्रभावित हो रही थी। उसने देखा कि खतरा सीधे उसके अपने राज्य क्षेत्र के ऊपर मँडरा रहा है, अपनी सुरक्षा के लिहाज से यह उसे स्वीकार नहीं था। जनसूचना के अनुसार प्रधानमंत्री चाऊ एन लार्ई को स्तालिन के पास चीन के उस नजरिये की सूचना देने के लिए मास्को भेजा गया, जिसमें चीन ने अपनी और कोरिया की सीमा रेखा पर अमरीेकी कमाण्ड में संयुक्त राष्ट्र की सेना की मौजूदगी को पूरी तरह से अमान्य करार दिया था और उन्होंने सोवियत संघ से सहयोग माँगा। उस समय तक दो महान समाजवादी देशों के बीच कोई गहरा अन्तरविरोध पैदा नहीं हुआ था। यह स्वीेकृत था कि चीन की जवाबी कार्यवाई की योजना 13 अक्टूबर कीे थी लेकिन माओ ने सोवियत संघ के जवाब के इन्तजार में इसे बढ़ाकर 19 अक्टूबर कर दिया। यह अधिकतम समय था जब तक वे रुक सकते थे।
मैंने इस बातविमर्श को अगले शुक्रवार तक खत्म करने की सोच रखी है। यह एक जटिल और श्रमसाध्य विषय है जिसके लिए विशेष ध्यान और सूचना की जरूरत पड़ती है। वह जितना हो सके सटिक हो। ये ऐतिहासिक घटनाएँ है जिनको जानना और याद रखना चाहिए।
फिदेल कास्त्रो रुज 
(22 जुलाई 2008)
अनुवादक- अजय कुमार


बुधवार, 16 सितंबर 2015

पोर्नोग्राफिक वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध से सरकार का यू-टर्न

मोदी सरकार ने अगस्त महीने की शुरुआत में 857 पोर्नोग्राफिक वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इससे देशभर के शिक्षित तबके में तीखी बहस छिड़ गयी. लोगों ने फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ जमकर गुस्सा निकाला. जहां कुछ समय पहले कुछ संगठन और कई बुद्धिजीवी इन साइटों पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे, वहीं अब अधिकाँश लोगों ने इस प्रतिबन्ध का विरोध किया. उनहोंने खुलकर पोर्नोग्राफी का पक्ष-पोषण किया. इन लोगों में दक्षिणपंथी सोच के वे लोग भी शामिल थे जो नारी को देवी तुल्य मानने का दावा करते हैं और वामपंथी सोच के ऐसे लोग भी थे जो महिला स्वावलंबन और स्त्री-पुरुष समानता पर विशेष जोर देते हैं. इस मुद्दे पर इन दोनों विरोधी सोच के लोगों में गजब की समानता दिखी. दोनों पक्ष ही अपने महिला विरोधी सोच को आगे बढाते रहे. पोर्नोग्राफी का खुलकर समर्थन किया और सरकार को कोसने में कोई कोर-कसर न उठा रखी. सबको सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले गैर-सरकारी संगठन के अधिकाँश लोग भी पोर्नोग्राफी के समर्थन में उतर आये. फिल्मकारों का धंधा ही अश्लीलता पर चलता है. वे जनता की पसंद का ढकोसला करते हुए फिल्मों में खुलकर नग्नता परोसते हैं. भला वे इस मामले में किसी से पीछे क्यों रहते?
पोर्नोग्राफी के समर्थकों ने अपने पक्ष में यह दलील भी पेश की कि भारत में पोर्नोग्राफी के नशेबाजों में 25-30 प्रतिशत महिलायें भी हैं. हालाँकि ऐसी बातें इससे पहले किसी सर्वे में सामने नहीं आयी थी. कुछ लोगों का कहना था कि पोर्नोग्राफी को प्रतिबंधित करने से क्या फ़ायदा, जब भोजपुरी की नई फ़िल्में उससे अधिक अश्लील है. समाज में प्रचलित मां-बहन की गालियाँ किसी पोर्नोग्राफी से कम हैं क्या? समर्थकों ने पोर्नोग्राफी के  प्रतिबन्ध को निजता का उलंघन बताया. उनका कहना था कि सरकार उनके बेडरूम में ताक-झाँक करना चाहती है. यह बर्दाश्त से बाहर की चीज है. एक समय ऐसा लगा कि लोग अपने बेडरूम में पोर्नोग्राफी ही देखते होंगे. चौतरफा दबाव से सरकार के सिहांसन के पहिये हिल गये. आनन-फानन में उसने अपने कदम वापस लेते हुए प्रतिबन्ध हटा लिया. अन्त में इतनी बड़ी बहस इस मुद्दे तक सिमट गयी कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए. पोर्नोग्राफी बच्चों के कोमल मन:स्थिति के प्रतिकूल होता है.
पोर्नोग्राफी के समर्थकों का कहना है कि जब हम भारतीय संस्कृति के रूप में खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की उन मूर्तियों की प्रशंसा करते हैं, जिनमें काम-क्रीडा को विभिन्न मुद्राओं में दिखाया गया है, तो हमें क्यों पोर्नोग्राफी को प्रतिबंधित करना चाहिए? विभिन्न मंदिरों की ये मूर्तियाँ सैकड़ों साल पुराने सामन्ती समाज की देन हैं. उस समय किसान और मजदूर हाड तोड़ मेहनत करने के बावजूद वंचनाभरी जिन्दगी जीते थे. इनकी मेहनत के दम पर महलों में हमेशा रौनक रहती थी. वे नाच-गानों से गुलजार रहते थे. भोग-विलास और अश्लीलता सीमा पार कर जाती थी. राजा कई सुन्दर लड़कियों को जबरन अपने हरम में रखते थे या कुछ अपनी सुख-सुविधा की चाह में उनकी रानियाँ बन जाती थी. ऐसी थी वह सामन्ती व्यवस्था. इसके बावजूद अगर राजाओं को बोरियत होती थी तो वे नग्न मूर्तियों और नंगे नाचों से अपना जी बहलाते थे. यह हमारी परम्परा कैसे हो सकती है? यह उस 80 करोड़ मेहनतकाश वर्ग की परम्परा कैसे हो सकती है, जो रात-दिन मेहनत-मशक्कत करके केवल अपनी रोजी रोटी जुटा पाता है? क्या किसी महिला ने भी नग्न मूर्तियों को अपनी संस्कृति बताया है? बल्कि महिलाओं के लिए इससे अपमानजनक चीज कोई हो ही नहीं सकती. इस मामले में एक महिला का कहना है कि नग्न मूर्ति बनवाने वाला स्त्री-देह को खिलौना समझने की विकृत मानसिकता से ग्रस्त रहा होगा.
ग्लेडिएटर में लड़ाने से पहले रोमन गुलामों के पास सुन्दर महिलायें भेजी जाती थीं ताकि लड़ने से पहले गुलामों का चित्त प्रसन्न और स्थिर रहे. इससे वे बेहद जुझारूपन के साथ एक-दूसरे से मरते दम तक लड़ते थे और लड़ाने वाला शासक इस युद्ध का मजा लेता था. नये गुलामों के लिए पोर्नोग्राफी की आपूर्ति करके पूँजीवाद यही काम करना चाहता है. वह गुलामों की एक ऐसी जमात खडी कर रहा है जो उच्च-शिक्षित हो, दबाकर उदर-पूर्ति करे और प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक यौन-क्रियाओं के अश्लील फोटो और वीडियों देखकर लुत्फ़ उठाये. गुलामी करे एक ऐसी व्यवस्था की जो सिर से पैर तक मानव-द्रोही है. कुल मिलाकर उसकी आत्मा या अन्त्श्चेतना चकाचौंध भरी पूंजीवादी तिलिस्म में कैद हो और वह एक जानवर मात्र रह जाए.
पोर्नोग्राफी न केवल अनैतिक है बल्कि यह महिला विरोधी भी है. पोर्नोग्राफी के नशेबाज महिलाओं को अपनी काम-वासना पूर्ति की सामग्री (सेक्स-ऑब्जेक्ट) समझते हैं. पोर्नोग्राफी में न केवल प्राकृतिक यौन क्रिया दिखाई जाती है बल्कि महिलाओं के शरीर से खिलौने की तरह खिलवाड़ किया जाता है. रातभर पोर्नोग्राफी देखने के बाद पुरुष कामेच्छा से पगलाया हुआ हिंसक जानवर बन जाता है. ऐसे लोग न केवल जवान महिलाओं को  अपनी काम-कुंठित वासना का शिकार बनाते हैं बल्कि छोटी बच्चियों और महिलाओं तक को नहीं छोड़ते. काम-क्रीडा की विकृति के चलते छोटे बच्चों के शरीर से खेलना और भेद खुल जाने के सामाजिक दर के चलते उनकी हत्या कर देने जैसे अपराध बढ़ते जा रहे हैं. हालाँकि ऐसी यौन हिंसाओं के पीछे केवल पोर्नोग्राफी ही जिम्मेदार नहीं है. हमारी समाज व्यवस्था का स्त्री-विरोधी चरित्र और स्त्री-पुरुष का घटता अनुपात भी जिम्मेदार है.
अश्लील फोटो-साहित्य-वीडियों का निर्माण और प्रचार-प्रसार तथा इनका इस्तेमाल इंसानी शरीर के निजता का उलंघन है. जो लोग पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध को लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं और इसे अपनी निजता का उलंघन बता रहे हैं, दरअसल वे खुद निजता का उलंघन कर रहे हैं. दो इंसानों के निजी सम्बन्ध यानी जिस्मानी ताल्लुकात को सार्वजनिक करना निजता का उलंघन है और ऐसा करने वालों को किसी तरह की छूट नहीं दी जा सकती. यह बात सही है कि केवल पोर्नोग्राफी को प्रतिबंधित करने से महिलाओं की सभी समस्यायें हल नहीं होगी और न ही यौन अपराध को जड़ से मिटाया जा सकता है. बल्कि पोर्नोग्राफी पर प्रतिबन्ध के साथ-साथ समाज के स्त्री-विरोधी चरित्र से लड़ने और औरतों को आर्थिक रूप से आजाद करने की जरूरत पडेगी.


गुरुवार, 10 सितंबर 2015

एन्टी-सुपरस्टिशन फोरम बनाने में सहयोग करें!!!


मेरे एक साथी पेशे से इंजिनियर हैं और उनकी शिक्षा विज्ञान-टेक्नोलॉजी में हुई है। उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि हमें दक्षिण की तरफ पैर करके नहीं सोना चाहिए। मैंने पूछा क्यों? क्या आप अन्धविश्वास (सुपरस्टिशन) में यकीन करते हो। उन्होंने कहा कि बात अन्धविश्वास की नहीं है। हमारी सभी मान्यताओं का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार होता है, जैसे यह मान्यता कि मुर्दे का पैर दक्षिण दिशा में करके लिटाया जाता है, इसलिए ज़िंदा इंसान को दक्षिण की ओर पैर करके नहीं सोना चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य है। पृथ्वी एक चुम्बक की तरह व्यवहार करती है। जब हम दक्षिण की तरफ पैर करके सोते हैं तो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बीच हमारे खून की गति के चलते शरीर में विद्युत धारा पैदा होती है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदेह है। उन्होंने आगे कहा कि आप लेन्ज का नियम तो जानते हैं ना, जब कोई चालक विद्युत क्षेत्र में गति करता है तो उसमें विद्युत धारा पैदा होती है और हमारे खून में हिमोग्लोबिन है जो आयरन से बना है, इसलिए पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में खून की गति से धारा पैदा होना कोई अचरज की बात नहीं। मैं अवाक और बेचैन हो उठा। मेरे मन में कई सवाल खड़े हो रहे थे। जैसे- क्या हमारे पूर्वजों के पास इतना उन्नत ज्ञान-विज्ञान था, जिससे वे विज्ञान की इस प्रक्रिया को जान लेते थे? विज्ञान का छात्र होने के नाते मैं चैन से नहीं बैठ सकता था। मेरे मन में सवालों के बवंडर उठ रहे थे। इतने उन्नत विज्ञान के बावजूद हम भारतीय इतने पिछड़े क्यों हैं?

मैंने किताबों के पन्ने पलटे। फिजिक्स के प्रोफ़ेसर से बात की और खुले दिमाग से समस्या पर विचार किया। मैं सच्चाई जानकर चौंक गया। मेरे साथी के तर्क आधारहीन थें। बल्कि वह तर्क और विज्ञान के नाम पर कुतर्क और अन्धविश्वास परोस रहे थे। दरअसल मामला यह है कि लेन्ज के नियम के अनुसार चुम्बकीय क्षेत्र में अगर कोई चालक गति करता हो तो हमेशा विद्युत धारा नहीं पैदा होती है बल्कि एक ख़ास स्थिति में ही ऐसा होता है। फ्लेमिंग के नियम के अनुसार जब चुम्बकीय क्षेत्र, चालक की लम्बाई और चालक की गति की दिशा तीनों एक-दूसरे के लम्बवत हो, तभी धारा जन्म लेती है। ऊपर की स्थिति में खून का बहाव चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में होता है, इसलिए धारा पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। मैंने अगली मुलाक़ात में उन्हें अपनी बात बतायी और उनसे कहा कि अगर आपको फिरभी विश्वास न हो, तो आप अपने समर्थन में विज्ञान का कोई नियम या कोई शोधपत्र दिखा सकते हैं। अगर अब तक कोई शोधपत्र नहीं छपा तो उसे आप अपने तर्कों के हिसाब से लिखकर किसी प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका में छपवा दो, आपको नयी खोज के लिए पुरस्कार भी मिलेगा। वह बेहद शर्मिन्दा थे। उन्होंने कहा कि मुझे यकीन नहीं होता, हमारे सामने विज्ञान के नाम पर किस तरह छद्म विज्ञान परोसा जा रहा है और हम इसपर कितने सहज ढंग से विश्वास कर लेते हैं। मैं उनकी ईमानदारी का कायल हो गया। एक वैज्ञानिक अपनी गलती पता चलने पर उसे तुरंत दुरुस्त कर लेता है। लेकिन एक अन्धविश्वासी ऐसा कभी नहीं करेगा।

गंडे, ताबीज और अंगूठी के बारे में ऐसे ही कुतर्क सुनने के लिए मिलते हैं। एक अन्धविश्वासी विद्वान ने मुझे बताया कि अन्तरिक्ष के ग्रहों और नक्षत्रों से आने वाली घातक किरणों को सोखकर विशेष पत्थरों से बनी ये अंगूठियाँ हमारी रक्षा करती हैं। मैंने उनसे पूछा कि अन्तरिक्ष से जितने विकिरण आते हैं, उनमें से कुछ सेहत के लिए अच्छी हैं और कुछ घातक। अंगूठियों के ये पत्थर किस तरह से बनाये गए हैं जो केवल घातक किरणों को ही सोखते हैं? इन घातक किरणों की आवृत्ति कितनी है? कुल मिलाकर आपने जो बताया है, उसकी थ्योरी मुझे समझा दो। अगर आपको पता नहीं तो कुछ दिन बाद पता करके बता देना। अगर ऐसी कोई थ्योरी लिखी नहीं गयी है तो आप लिख दीजिये। विज्ञान की दुनिया में अमर हो जायेंगे। वह समझ गये कि इस बार किसी कूढ़मगज या कूपमंडूक से पाला नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि देखिये, विज्ञान-सिज्ञान कुछ नहीं है। बेकार की चीज है। असली चीज तो हमारी परम्पराएँ और मान्यताएँ हैं। मैंने कहा, महोदय आप ने जो सुन्दर कोट पहन रखा है, जिस कार से आये हैं और दिन-रात जिन सुविधाओं का इस्तेमाल करते हैं, वे सभी विज्ञान की देन हैं। खुद सुविधाभरी जिन्दगी जियो और सबको उपदेश दो कि वे जंगल में जाकर तपस्या करें। यह कहाँ का न्याय है?

हाल की एक घटना से मैं बेहद विचलित हो गया। खबर इस तरह है, “रोहटा थाना क्षेत्र के गांव जटपुरा में तांत्रिक क्रियाओं के लिए ढाई साल के बच्चे की बलि दे दी। बच्चे का हाथ और पैर कटा शव बृहस्पतिवार को ईख के खेत में मिला। शक के आधार पर तांत्रिक क्रियाएँ करने वाली एक महिला को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।” (अमर उजाला, 4 सितम्बर 2015) यह दिल दहला देने वाली घटना है। हम अपने मासूम बच्चों की रक्षा भी नहीं कर पा रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद क्या हमारे देशवासियों के भाग्य में यही लिखा है?  

रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रचलित सामान्य किस्म के अन्धविश्वास नीचे दिए जा रहे हैं। आप खुद ही तय कीजिये कि वे कहाँ तक तर्कसम्मत हैं? विज्ञान से इनका कुछ लेना-देना है भी या नहीं?


1.         बिल्ली का रास्ता काटना

2.         सुबह घर से निकलते कोई खाली बर्तन ले जाता दिखे

3.         सोम-शनिचर पुरुब न चालू, मंगल बुध उत्तर दिश कालू, विफय के जो दक्षिण जाई, चार लात रस्ते में पाई

4.         घर से निकलते समय किसी के छींकने या टोकने पर अपशकुन मानना

5.         कुत्ते के रोने पर अपशकुन

6.         शव यात्रा या शव दाह के अपशकुन या अशुभ मानना

7.         विधवा औरत से सम्बन्धित अपशकुन

8.         चारपाई को उलटा खड़ा करना- ऐसा तब करते हैं, जब किसी की मौत हो गयी हो।

9.         झाडू पर पैर लगने से पैसे की तंगी बढ़ना

10.     कौवे से सम्बन्धित अपशकुन

11.     विशिष्ट जाति के व्यक्ति के दिखने पर अन्धविश्वास

12.     किसी ख़ास दिन बाल कटवाने या दाढी बनवाने पर प्रतिबन्ध

13.     बांस जलाने से वंश का नष्ट होना

14.     रात में झाडू न लगाना या झाड़ू खड़े करके न रखना

15.     रात में बैगन, दही और खट्टे पदार्थ न खाना

16.     घर से बाहर निकलते समय पहले दायाँ पैर ही आगे बढ़ाना

17.     घर या दुकान के बाहर नींबू-मिर्च लटकाना


हम कब तक धर्म के ठेकेदारों के हाथों ठगे जाते रहेंगे? जो न केवल अन्धविश्वास फैलाकर हमें भ्रमित करते हैं बल्कि हमें आर्थिक नुकसान भी पहुंचाते हैं। हाथ में रक्षा सूत्र बाँधने से क्या हमारी रक्षा हो जायेगी? अमरीका की संस्था सीआईए ने एक क्रांतिकारी के ऊपर 638 बार जानलेवा हमले किये, फिरभी वह बच गये। दुनियाभर के पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आप बुलेट-प्रूफ पहनते होंगे? इसपर उन्होंने कहा कि कहाँ है बुलेट-प्रूफ? उन्होंने अपने शर्ट का बटन खोलते हुए दिखाया। बुलेट-प्रूफ बाहर नहीं, दिल के अन्दर है। अगर साहस न हो तो बड़े से बड़ा हथियार बेकार है।

अन्धविश्वास हमारे आत्म-विश्वास को तोड़कर हमें परनिर्भर बनाता है। यह हमारी आत्मिक ताकत को कमजोर बना देता है। हमें याचक बना देता है। हम क्यों डरे? डर में सुरक्षा नहीं है। कायर सबसे पहले मारा जाता है। हमें निडर और साहसी बनना चाहिए। कठिनाइयों को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उससे भागना पलायनवाद है। पलायनवादी कभी भी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। साहस, त्याग, लगन और कठिन परिश्रम से ही सफलता मिलती है। इसे समझना हो तो माझी: द माउंटेनमैनफिल्म देखनी चाहिए। दशरथ माझी ने लगन और कठिन परिश्रम से छेनी-हथौड़ी के द्वारा पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया। पहाड़ को झुका दिया। मजबूत इरादें हो तो सांसारिक बाधाएँ कुछ भी नहीं। हम कमजोर क्यों हैं? हमारा राष्ट्र कमजोर क्यों है? हम खुद पर भरोसा नहीं करते। हमारी सोच में कमजोरी है। हम कठिन परिश्रम करने से डरते हैं। हम पढ़ने से दूर भागते हैं। हम समस्याओं से जूझने की कोशिश नहीं करते। हम अलग-अलग मुद्दों पर आपस में बहस नहीं करते। ये बातें हमें कमजोर बनाती हैं। कमजोर लोगों से बना राष्ट्र भी कमजोर होगा। एक-एक व्यक्ति को मजबूत करने से ही पूरा राष्ट्र मजबूत होगा। ये हमारे कार्यभार हैं। हमें इसे पूरा करना ही होगा। यह समय की मांग है। देश करवट बदल रहा है। इस मुद्दे को लेकर लोगों में बहस जारी है। हमें तय करना है कि हम सच और विज्ञान के साथ हैं या झूठ और अन्धविश्वास के साथ। हम रोशनी के साथ हैं या अन्धकार के साथ। दोस्तो, आज यह तय करने का समय आ गया है। विज्ञान और अन्धविश्वास में कोई मेल नहीं। अन्धविश्वास के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक देश का हर नागरिक इस व्याधि से मुक्त नहीं हो जाता।

किसी ने सवाल किया कि क्या धार्मिक रहते हुए भी अन्धविश्वास से लड़ा जा सकता है? इसका जवाब है- हाँ। धार्मिक होकर अन्धविश्वास से न केवल लड़ा जा सकता है बल्कि सबसे बढ़िया तरीके से लड़ा जा सकता है। मार्टिन लूथर किंग ने ईसाई धर्म में प्रचलित अन्धविश्वास और गलत परम्पराओं के खिलाफ संघर्ष किया। उस समय वह धार्मिक और ईश्वरभक्त थे। उन्होंने चर्च में 95 कीलें ठोंकी जो उस धर्म में फ़ैली बुराई का प्रतीक थीं। उनके शिष्य विरोधी (प्रोटेस्टेंट) कहलाये जो ईसाई धर्म की बुराइयों से लड़ते थे। इंग्लैंड सबसे पहले प्रोटेस्टेंट बना। अन्धविश्वास से मुक्त हुआ। वहाँ वैज्ञानिक ज्ञान का प्रकाश फैला। धीरे-धीरे पूरा यूरोप अन्धविश्वास से मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया। अन्धविश्वास और गलत रीति-रिवाजों से लड़ने का कभी यह मतलब नहीं है कि हम धर्म और ईश्वर की सत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं। बल्कि यह लड़ाई धर्म में फ़ैली बुराई और जड़ता के खिलाफ है। अन्धविश्वास और गलत रीति-रिवाज अज्ञानता और जड़ता के चलते फैलते हैं। इससे इंसान कमजोर होता है। इससे धर्म कमजोर होता है। इससे पूरा राष्ट्र पिछड़ जाता है।

अन्धविश्वासी व्यक्ति के अन्दर एक विचार गहराई से बैठा होता है कि धर्म पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। वह जानता है कि उसका विश्वास बहुत कमजोर है और तर्क करते ही टूटकर बिखर जाएगा। वह अन्धविश्वास को धर्म से जोड़ता है और उसपर सवाल करने से मना करता है। इस बात से वह अपने अन्धविश्वासपूर्ण विचारों की रक्षा करना चाहता है। यह गलत है। आज यह प्रचलन में है कि सड़ी-गली चीजें लोगों में परोस दी जाय और धर्म के नाम पर लोग बिना सवाल उठाये उसे स्वीकार कर लें। इसी आधार पर सैकड़ों बाबाओं का धंधा फल-फूल रहा है। वे करोड़ों-अरबों की संपत्ति से अपनी तिजोरी भर रहे हैं। वे नौजवान पीढ़ी को अन्धविश्वास और अन्धकार के दलदल में धकेल रहे हैं।

दोस्तो, यह सवाल आम जनता से नहीं है, बल्कि उन साथियों से है जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी की शिक्षा लेकर अपना भविष्य संवारना चाहते हैं। क्या आप गन्डा-ताबीज और रक्षा-रोरी के भरोसे अपना भविष्य बनायेंगे? या ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करके आत्म उन्नति से सफलता के द्वार खोलेंगे। हमारी समाज व्यवस्था खराब है। यह कहने भर से तो काम नहीं चलने का और न ही हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं। आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। इसकी शुरुआत खुद से करें। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने कहा था कि हमें दोनों हाथों में नंगी तलवारें लेकर अपनी दिमागी गुलामी की जंजीरें काटनी होगी। अन्धविश्वास के खिलाफ सतत संघर्ष के लिए आगे आईये और एन्टी-सुपरस्टिशन फोरम (Anti-Superstition forum) बनाने में सहयोग कीजिये।

हमारे कार्यभार-

1.         समान विचारों के लोगों की एक टीम बनाइए जो इस दिशा में लगातार काम करें।

2.         अन्धविश्वास के खिलाफ संघर्ष में व्हाट्सअप और फेसबुक का इस्तेमाल कीजिये। इन माध्यमों का भरपूर उपयोग कर वैज्ञानिक सोच को दूर-दूर तक फैलाइए।

3.         लेखों, पर्चों और पुस्तकों के माध्यम से लोगों में जागरूकता फैलाइए। लोगों को जागरूक करने के लिए पर्चे छपवाकर या फोटोस्टेट कराकर वितरित कीजिये।

4.         अपने दोस्तों के बीच अन्धविश्वास से सम्बन्धित बातों पर बहस चलाइए। उन्हें बताइए कि कैसे ये चीजें हमें और हमारे देश को कमजोर बना रही हैं?

5.         शिक्षक अपनी कक्षाओं में छात्रों को अन्धविश्वास के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करें।

6.         इस मुद्दे पर मीटिंग और सेमीनार आयोजित करना चाहिए।   
   

शनिवार, 6 जून 2015

देश विदेश-20

दूसरे चरण के सुधार अधिक घातक होंगे।



19 मई 2015 को द हिन्दू न्यूज पेपर के सम्पादकीय लेख में पूर्व वाणिज्य मंत्री सुब्रमन्यन स्वामी ने अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में जायजा लिया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बताया कि पिछले साल जब भाजपा सरकार ने शपथ ग्रहण किया था] उस समय वित्त मन्त्रालय ने वृद्धि दर को 10 प्रतिशत से ऊपर बनाये रखने के लिए लैस्पेयर्स इण्डेक्स के बजाय पाश्चेय इण्डेक्स के आधार पर वृद्धि दर की गणना करने की योजना बनायी थी। वित्त मन्त्रालय ने यह कदम इसीलिए उठाया था जिससे मुद्रास्फीति की स्थिति में भी वृद्धि दर को बनावटी तौर पर उँचे स्तर पर बनाये रखा जाय।
उन्होंने यह भी कहा कि इतना सब होने के बाद भी प्रत्यावर्ती मार्कर के आधार पर अगर अर्थव्यवस्था की स्थिति का पूर्वानुमान लगाया जाये तो बहुत दयनीय तस्वीर उभर कर सामने आती है और अगर सुधार के आवश्यक कदम नहीं उठाये गये तो भारतीय अर्थव्यवस्था अनियन्त्रित होकर मन्दी के गर्त में गिर जायेगी। पिछली सरकार का ऐसे हालात लाने में काफी योगदान है लेकिन भाजपा की सरकार के एक साल पूरे होने पर उसके लिए यह कोई बहाने बाजी की बात नहीं रह गयी है।
यह मानना पड़ेगा कि पूर्व वाणिज्य मंत्री ने अर्थव्यवस्था की काफी हद तक ठीक तस्वीर पेश की है। अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है] उसकी एक झलक देते हुए उन्होंने लिखा कि इस साल के वित्तीय वर्ष में पब्लिक सेक्टर बैंक को 51 प्रतिशत शेयर बनाये रखने के लिए 1]21]000 करोड़ रूपये की जरूरत पड़ेगी लेकिन 2015-16 में सरकार मात्र 11]200 करोड़ रूपये ही जुटा पायेगी। 1997-98 में पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था भयावह विध्वंश का शिकार हुई थी। उसी के तर्ज पर बैंकों की नॉन परर्फोमिंग एसेट बढ़ने से हमारा बैंकिंग क्षेत्र तबाह होने के कगार पर पहुँच गया है। नॉन परर्फोमिंग एसेट या गैर निष्पादनीय परिसंपतियाँ ऐसे ऋण हैं जो अमीरों या पूँजीपतियों को दिये जाते हैं। लेकिन न तो उनका ब्याज मिलता है और न ही मूल धन। सामान्य तौर पर किसी वित्तीय वर्ष में अगर ऋण के मूलधन का भुगतान 180 दिन और ब्याज का भुगतान 365 दिनों के लिए रोक दिया जाय तो ऐसे ऋण को भी नॉन परर्फोमिंग एसेट कहते हैं।
रूपये का अवमूल्यन हो रहा है क्योंकि विदेशी निवेशकों ने जिन भारतीय कम्पनियों के शेयर खरीदे थे] उनकी हालत खस्ता देख अपने शेयर बेचकर भाग रहे हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाली कई कम्पनियाँ भी अपने शेयर बेच कर भाग रही हैं। रूपये के अवमूल्यन में पिछले तीन महीने में कमी आयी है क्योंकि पार्टीसिपेटरी नोट और दूसरे अन्य डेरिवेटिव्स के जरिये हमारे शेयर बाजार में पूँजी लगायी गयी। लेकिन पार्टीसिपेटरी नोट को हॉट मनी डेरिवेटिव कहा जाता है जिसे कभी भी किसी बहाने से खींच लिया जायेगा और रूपये का भारी अवमूल्यन होगा।
वाणिज्य मंत्री ने यह भी चिन्ता जतायी है कि भारत के 10 बड़े कार्पोरेट घरानों का मुनाफा और कर्ज उस स्तर पर पहुँच गया है जहाँ वे मुनाफे से अपना सालाना कर्ज नहीं पाट सकते हालाँकि कार्पोरेट घरानों की इस जुगाड़बाजी को हम सभी जानते हैे कि वे टैक्स चोरी करने के लिए कैसे अपने ऊपर मुनाफे से अधिक कर्ज दिखाते हैं।
इस लेख में वाणिज्य मंत्री किसानों की खराब हालात पर चिन्तित दिखे। उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र में 62 प्रतिशत श्रम शक्ति को काम मिला है लेकिन किसान कर्ज न अदा करने के चलते अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं। लगभग 50 प्रतिशत बच्चे 5वीं क्लास से अधिक नहीं पढ़ पाते। 30 करोड़ लोग निरक्षर हैं और 25 करोड़ लोग भयावह गरीबी में जी रहे हैं।
भारत का मूलभूत ढाँचा दयनीय हालत में है। बार-बार बिजली की कटौती] पीने के पानी का खतरनाक स्तर तक प्रदूषित होना और भारतीय सड़कों की खराब हालत इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिऐ जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करने की जरूरत है जबकि सरकार 2.8 प्रतिशत ही खर्च करती है।
उन्होंने इन सभी समस्याओं को गिनाते हुए यह भी बताया कि घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारत जवान राष्ट्र है। यहाँ जवान लोगों की औसत उम्र 28 साल है जबकि जापान में यह 49 साल है। हालाँकि इसमें खुश होने लायक कोई बात नहीं है। इस आँकड़े से यह लग सकता है कि भारत के अधिकांश लोग जवान हैं। लेकिन यह भ्रामक है। जापान की औसत आयु अधिक होने के पीछे वहाँ लोगों का अधिक उम्र तक जीवित रहना है। इसीलिए वहाँ बुजुर्गां की संख्या ज्यादा है जबकि भारत में लोग बीमारी] दुर्घटना और अन्य कारणों से कम उम्र में ही मर जाते हैं। इसीलिए यहाँ औसत उम्र कम है। औसत उम्र 28 साल होने से वही व्यक्ति खुश हो सकता है जो देश के नागरिकों को इंसान के रूप में नहीं बल्कि पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के साधन के रूप में देखता है। यह सच भी है नहीं तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय होने का क्या औचित्य है?
समस्याएँ गिनाने के बावजूद पूर्व वाणिज्य मंत्री इन समस्याओं के पीछे के कारणों की चर्चा तक नहीं करते और समाधान ऐसा पेश करते हैं जो समस्या को और ज्यादा बढ़ा देगा। वह आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण को लागू करने पर जोर देते हैं जबकि यह बात लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि पहले दौर के सुधार ने ही देश का बेड़ा गर्क किया है।
सुधारों के नाम पर 25 सालों से जारी वैश्वीकरण] निजीकरण] उदारीकरण की नीतियों ने ही बेरोजगारी] महँगाई] गरीबी और अपराध में बेतहासा बढ़ोत्तरी की है। सुधारों पर अंकुश लगाये बिना कोई भी समाधान कारगर नहीं होगा।
 &विक्रम प्रताप