बुधवार, 4 सितंबर 2013

खाद्य सुरक्षा बिल - एक ढकोसला

तमाम अड़चनों के बाबजूद भारतीय संसद में पारंपरिक तरीके से नियम क़ानून बनाने की एक और ऐतिहासिक घटना घटी। 26 अगस्त 2013 को लोकसभा में बहुमत के साथ खाद्य सुरक्षा विधेयक को पास कर दिया गया। दावा किया गया है कि यह विधेयक देश की 82 करोड़ जनता को सस्ता अनाज मुहैया करायेगा। भूख से लड़ने के मामले में यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। वैसे खुद योजना आयोग के मुताबिक इस तरह की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मौजूदा भ्रष्टाचार के चलते पचास फीसदी से अधिक रियायती खाद्यान की काला बाजारी हो जाती है।
अगर देश की वस्तुगत परिस्थितियों को देखें तो यह 67 फीसदी जिनके लिए खाद्य सुरक्षा बिल पास हो रहा है, सिर्फ खाद्य के मामले में ही नहींशिक्षास्वास्थ्यरहन-सहन और सम्मानजनक जिंदगी जीने के अवसर, रोजगार आदि के मामले में भी असुरक्षित हैं। देश भर में अनाज, दलफलदूध जैसी खाद्यान वस्तुएं पैदा करने वाले ही आज खाने के लिए मुहताज हैं और जो लोग इस तरह के उत्पादन से कोई सम्बन्ध नही रखते वे महफूज हैं। दुनिया भर के लिए खाद्यान पैदा करने वालों को इस परिस्थिति में पहुँचाने के लिए आखिर कौन जिम्मेवार है? मेहनतकश की खून पसीने की कमाई का असली मजा कौन लूट रहा है?
निश्चित तौर पर देश के मेहनतकश वर्ग को हर तरह से असुरक्षा के घेरे में खड़ा करने के लिए शासक वर्ग की जनविरोधी नीतियां ही जिम्मेवार हैं।
कैसे?
एक अध्धयन के अनुसार केवल 8250 परिवार देश की 75 फीसदी सम्पदा पर अधिकार जमाये बैठे हैं। इस असमान आर्थिक विकास की वजह कोई दैवीय शक्ति नहीं, बल्कि शासकों द्वारा बहुतायत जनता की अनदेखी कर, पूंजीपतियों के हित में बनायी गयी नीतियां है जिसकी वजह से देश भर में अन्न और दूसरे तरह के उत्पादन में लगे मजदूर खाद्यान के मामले में असुरक्षित हैं जिनके लिए आज सरकारें  खाद्य सुरक्षा बिल पारित करके वाहवाही लूटने और वोट बैंक बढाने में लगी हैं। विपक्ष भी निराश है कि यूपी अकेले ही बिल पास करने का श्रेय लेने की फ़िराक में है। खुद खाद्य सुरक्षा बिल कितना सुरक्षित और न्यायपूर्ण है ? इसका विवरण देशविदेश पत्रिका के अंक-10 और अंक-16 में बहुत स्पष्ट ढंग से बताया गया है
जो लोग आज खाद्य असुरक्षा के घेरे में हैं, वे गरीब किसान खेतिहर मजदूर, ठेके पर काम करने वाले, निजी व्यवसायियों के यहाँ कम करने वाले, शहरों में ठेले वाले से लेकर रिक्शा चालक तक सभी मेहनतकश लोग हैं एक पंक्ति में अगर कहें तो सभी शारीरिक श्रम करने वाले लोग, जो की आज हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। इन्हें खुद की पैदा की गई संपत्ति में से उतना ही मिलता है कि जैसे-तैसे गुजर-वसर करके नए मजदूर पैदा कर सकें। मंहगे खाद्यान, स्कूलों की बढती फीसनिजी अस्पतालों के खर्चे का बोझ झेलने में ये असमर्थ हैं। इसके बावजूद यह सभी सुविधाएँ इन्हीं मेहनतकश के दम पर खड़ी की गयीं हैं, शासकवर्ग की नीतियों के चलते यही मेहनतकश लोग आज इन सभी मूलभूत सुविधाओं से अलग कर दिए गए हैं। हर तरह से उन्हें असुरक्षा के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया गया है। इसलिए जब तक आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविक सुविधासम्मानजनक रोजगार जैसी सहूलियतें नहीं होंगी, तब तक खाद्य सुरक्षा खतरे में बनी रहेगी और देश का मेहनतकश वर्ग सस्ते अनाज बेचने के बाद पैरासिटामोल की गोली खरीदकर काम ढूँढने जाता रहेगा।
खाद्य सुरक्षा बिल पास होते ही, मंदी की मार से बौखलाए पूंजीपतियों की चिंता बढ़ी
यूँ तो शा वर्ग ने बहुतायत जनता के हित में नीतियां बनाने से पल्ला झाड़ ही लिया है, लेकिन बढ़ती भुखमरी और कुपोषण से दुनिया के स्तर पर हो रही थू-थू से बचने के लिए और वोट बैंक को बचाए रखने के लिए शा वर्ग को कुछ नीतियों पर हस्ताक्षर करने ही पड़े। खाद्य सुरक्षा बिल के कार्यक्रम को लागू करने में 1.3 लाख करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान है। इसी के साथ यह दुनिया भर में भूख से लडे जाने वाला सबसे बड़ा कार्यक्रम बन गया है। इस बिल के पास होते ही सनकी परजीवी वर्ग (पूंजीपति और शेयर धारक ) बौखला उठे उसे लगा जैसे जनता की गाढी कमाई का एक हिस्सा अब इस विधेयक के लिए खर्च होगा और उसके लिए दी जाने वाली टैक्स में छूट, प्रोत्साहन राशि तथा मंदी से बचाव राशि में कहीं कोई कमी आ जाये। देश के प्रमुख औद्योगिक संगठन एसोचैमसीआईआई और केपीएम जैसे संस्थानों ने घोषणा कर दी कि खाद्य सुरक्षा से सरकारी खजाने पर हजारों करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और इससे राजकोषीय घाटा बढ़ जायेगा। वास्तव में यह चिंता दर्शाती है कि खाद्य सुरक्षा बिल के लिए पास किया गया बजट कहीं पूंजीपतियों को दी जाने वाली छूट में कटौती बन जाये। राजकोषीय घाटे की चिंता में व्याकुल इस गिरोह का अनुकरण करने वाले निवेशकों ने शेयर भुनाना शुरू कर दिया। जिससे रातों-रात आयी रूपये में गिरावट से 1.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। यह नुकसान साल भर में खाद्य सुरक्षा बिल पर होने वाले खर्च 1.3 लाख करोड़ से कहीं ज्यादा है। शेयर बाजार में खेलने वाले और बड़े-बड़े संस्थागत निवेशक सार्वजानिक खर्चे में कटौती के पक्षधर होते हैं। विश्व बैंक से भी दिन-रात यही दिशा निर्देश मिलते है। यह गिरोह इस सनक का शिकार है कि किसी भी तरह का सार्वजनिक खर्चा पूँजी के लिए दुखदायी होता है। 1990 में विश्व बैंक की थोपी गयी नीतियों के चलते डॉलर पहले से ही अनियंत्रित था अगस्त २०१३ को खाद्य सुरक्षा बिल जैसे सार्वजनिक खर्चे की बात सुनते ही वह और ज्यादा अनियंत्रित हो गया और रातों- रात अरबों डकार गया।
दुनिया के चर्चित अर्थशास्त्रियों की टीम, भारत की बहुतायत जनता को बुनियादी चीजें उपलब्ध कराने में असफल रही है। विश्व बैंक की नीतियों के सामने घुटने टेक कर भारत सरकार ने पूँजी संचय प्रक्रिया को गति प्रदान की है। जिससे अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढ़ रही है।
बेतहाशा गरीबी, भुखमरी, कुपोषण तथा बेरोजगारी इसके गवाह हैं। अब तो पूंजीपतियों और शेयर धारकों पर कड़ा शिकंजा कश कर ही स्थिति को काबू में किया जा सकता है. लेकिन मुनाफे के इन भेड़ियों को अपना आका मानने वाली सरकारों से ऐसी उम्मीद करना मासूमियत है। यह तभी सम्भव है जब देश का मेहनतकश वर्ग और जनपक्षधर बुद्धिजीवी देशी-विदेशी पूँजी और सटोरियों को नेस्तनाबूत करने के लिए एकजुट होकर प्रयास करें। तभी मेहनतकश वर्ग को उनका असली हक़ मिल सकता है। जिसके वे सहस्त्राब्दियों से अधिकारी हैं।
-राजेश कुमार

छात्र -एचबीटीआई, कानपुर


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें