शनिवार, 24 अगस्त 2013

जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं?

विश्व शांति सूचकांक द्वारा  वर्ष 2013 में किये गये एक सर्वे के अनुसार भारत दुनिया के सबसे हिंसक देशों में एक है। ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीकी (ब्रिक) देशों की सूची में पड़ोसी देशों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने में भारत का बेहद ख़राब स्थान है। व्यापार  के लिए उम्दा माहौल नाने में अंतिम स्थान है।  छोटे स्तर के घोटाले करने में भारत सबसे आगे है। कार्यकुशल सरकार के मामले में भारत का 4था स्थान है।
    किसी भी देश या समाज के जागरूक इंसान की कोशिश रहती है, कि देश में दंगे-फसाद या लड़ाइयाँ हो। लेकिन इस सर्वे के अनुसार शांति बनाये रखने की 162 देशों की सूची में भारत का 141वाँ स्थान है। वर्ष 2012 में आन्तरिक हिंसा के कारण 799  लोगों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। हमारा देश शांति बनाये रखने में फिसड्डी साबित हुआ है। 
     इस सर्वे से यह बात भी सामने आयी कि भारत हिंसा से पीड़ित देशों जैसे इराक, अफगानिस्तान,पाकिस्तान और दक्षिण सूडान  के रास्तों पर कदम-ताल कर रहा है। भारत में भयानक तरीके से हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में इजाफा हुआ है। औसतन एक दिन में दो या दो से अधिक जिन्दगियाँ दंगों द्वारा निगल ली जाती हैं। यह बेहद चिंता-जनक  है। इतनी हिंसा के बावजूद देश के रहनुमाओं के कानों पर जूँ तक नही रेंगती है।
     पिछले साल बस्तर और छत्तीसगड़ जैसे आदिवासी बहुल  इलाकों में भयानक हिंसक घटनाओं में लोगों की जान चली गयी। देश में चुनाव के आते ही राजनीतिक पार्टियाँ साम्प्रदायिकता का जहर फैलाना शुरू कर देती हैं। भूख, महँगाई और बेरोजगारी से त्रस्त जनता को जाति-धर्म के झगड़ों में उलझाकर वोट बैंक के सौदागर अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए दंगे-फसाद करवाते हैं और लाशों पर अपनी चुनावी रोटियाँ सेंकते हैं। गृह-मंत्रालय के मुताबिक 100 से ज्यादा साम्प्रदायिक दंगें सिर्फ जनवरी से अक्टूबर 2012 में हुए। जिनमें 34 लोगों की मौत हुई और 450 से ज्यादा लोग बुरी तरह  से घायल हुए। 
     असम के कोकराझार और आसपास के जिलों में जुलाई-अगस्त में हिंसक घटनाओं में 97 लोगों की जान चली गयीं और 4 लाख 85 हजार लोग विस्थापित हुए। विश्व शांति सूचकांक ने किसानों  की आत्महत्याओं को अपने आकड़ों में सम्मलित नहीं किया है। अन्यथा हमारे सामने देश की बहुत ही भयावह तस्वीर आयेगी।
     1990 में आर्थिक नीतियों के जरिये किसानों के हितों पर हमला किया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी-विदेशी धन्ना सेठों के हितो में नई नीतियां लागू की गयीं। सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण  पिछले 20 सालों  में औसतन 35 किसानों ने प्रति दिन आत्महत्याएँ की। जीवन गुजारने  का विकल्प होने पर ही कोई इंसान आत्म्हत्या करता है। क्या यह  हमारे शासकों द्वारा गलत नीतियों के हथियारों से की गयीं हत्याएँ नहीं है?
     इतना ही नहीं पिछले साल प्रतिदिन औसतन 370 लोगों ने आत्महत्याएँ की। यह बात हर जिन्दा इंसान को शर्मसार कर देने के लिए काफी है कि उनके देशवासियों ने इतनी भारी संख्या में इस देश की व्यवस्था से पीड़ित होकर अपनी जिन्दगी ख़त्म कर ली
     किसी देश का नौजवान तबका ही उसका कर्णधार होता है। इसलिए देश का कार्यभार बनाता है कि वह नौजवान को सही दिशा दे। जिससे देश विकास, शांति और सम्पन्नता की राह पर आगे बढ़ सके। बाहरी लडाईयों के मुकाबले आंतरिक कलह में इजाफा हुआ है। आज देश में दंगे ऐसे दिख रहे हैं जैसे गन्दगी के ढूह पर उगे झाड़-झंखाड़। देश की शांति और एकता को जातिवाद, क्षेत्रवाद और साम्प्रदायिकता जैसे चूहे कुतर रहे हैं। देश में बढती मँहगाई और बेरोजगारी  नौजवानों को गलत मार्ग पर चलने के लिए विवश कर रहे हैं। देश की यह भयावह तश्वीर अफ्रीका के गरीब देशों की स्थिति से भी घिनौनी है।

जिन्हें इस देश पर नाज है वे लोग कहाँ हैं?


-ललित कुमार 



गुरुवार, 22 अगस्त 2013

CNN-IBN के 350 मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाल दिए जाने का सवाल

सुयश सुप्रभ
August 17
कब तक पत्रकार केवल दूसरों के आंदोलनों के लिए जंतर मंतर जाएँगे? कभी-कभार अपने लिए भी जंतर मंतर जाना चाहिए। छँटनी के मसले पर बड़े संपादकों की चुप्पी पर भी बात होनी चाहिए। यह तो हम सभी जानते हैं कि हिंदी में अनियतकालीन पत्रिकाओं का पुराना इतिहास रहा है लेकिन अवैतनिक पत्रकारों वाले समाज में न पत्रकारिता बचेगी न सामाजिक मूल्य। पत्रकारिता के वैकल्पिक मॉडल को लेकर जागरूकता पैदा करने का काम पत्रकारों को ही करना पड़ेगा। मुद्दे बहुत-से हैं, लेकिन तमाम मुद्दों पर केवल माउस हिलाने से कुछ नहीं होगा। हाथ-पैर हिलाकर मंज़िल की तरफ़ बढ़ना होगा।


सुयश सुप्रभ 
August 18
क्या पत्रकारिता की बड़ी हस्तियाँ पत्रकारों की समस्याओं से हमेशा मुँह मोड़ती रहेंगी? Vikas Kumar ने बहुत ज़रूरी सवाल उठाए हैं। मैं आपकी सुविधा के लिए उनकी बात देवनागरी लिपि में साझा कर रहा हूँ :

"कहाँ हैं बड़े संपादक... जो बात-बेबात पर लिखने की क्रिया करते रहते हैं... कोई आत्मकथा लिख रहा है... कोई अखबार में सरकार की कमियाँ गिना रहा है... कोई हिंदी के प्रयोग की अलख लगा रहा है... कोई एक खास समुदाय को ऊपर उठाने की बात कर रहा है... कहाँ हैं सब लोग। बड़े आदर से आपसे गुज़ारिश है... आगे आइए... उनके लिए नहीं जिनकी एक झटके में नौकरी गई... बल्कि अपने लिए अपनी बड़ियत की रक्षा के लिए... आगे आइए... कुछ तो बोलिए... यही कह दीजिए कि आप नहीं बोल सकते... ये चुप्पी क्यों। मैं इस पोस्ट में तमाम बड़े पत्रकारों को टैग करने जा रहा हूँ.. जिन्हें बुरा लगे माफ़ कर दें... क्या हम सब अपने साथियों के लिए, अपने कल के लिए कुछ बोल नहीं सकते... क्या हम सड़क पर तभी निकलेंगे किसी की रैली कवर करनी होगी... आएँ न सर... हम बाहर निकलें... कानून का भी इस्तेमाल करें... आप लोग मार्गदर्शन तो कीजिए... हम बाहर निकलेंगे।"

Saroj Kumar 
 "भारी पैमाने पर हुई छंटनी के शिकार पत्रकारों में केवल दो-तीन से ही मेरी बात होती है. छंटनी ग्रस्त पत्रकारों की ओर से किसी प्रकार के विरोध या किसी योजना का पता नहीं चला है और इसके कारणों को शायद समझा भी जा सकता है. लेकिन उनकी ओर से ऐसी कोई योजना न सही लेकिन सांकेतिक रूप से विरोध जताने या बातचीत करने तो हम जुट ही सकते हैं. आज रात कुछ दोस्तों ने इस मामले पर बातचीत के लिए जुटने का प्रस्ताव रखा है-कल रविवार(18 अगस्त) दोपहर 2 बजे जंतर-मंतर. मैं कल पहुंच रहा हूं. आप भी आइए...रविवार दोपहर 2 बजे जंतर-मंतर..."

Ujjwal Agrain
मीडिया में काम करने वालों पर तरस आता है... नाम तो सुना ही होगा- लोकत्ंत्र का चौथा स्तंभ.. पर अगर मीडिया वालों की जिंदगी देंखें तो बाकी तीनों स्तंभ के ड्राइवर भी शर्मा जाए।
करियर की शुरूआत से ही बात करते हैं... सामान्य तौर पर अगर आप दिल्ली के बड़े संस्थान के छात्र नहीं हैं तो दो साल किसी मीडिया हाउस में बंधुआ मजदूर बनकर खटिए। इसके लिए आपको पैसे नहीं मिलेंगे और आप इंटर्न कहलाएंगे। फिर बड़े मीडिया हाउस के रिपोर्टर बन जाएंगे पर पैसों के नाम पर मिलेंगे ... तीन हजार रुपए। आपसे कोई पूछेगा कि जिंदगी से और क्या चाहते हैं तो जवाब मिलेगा... पर्मानेंट हो जाएं, बस। थोड़ा और समय बीतेगा तो दस साल काम कर चुके रहेंगे... पत्रकारिता की उत्साह खत्म हो जाएगी और बजाएंगे सुबह 10 से रात 10 की ड्यूटी। सैलेरी मिलेगी...15 हजार रुपए। (सरकारी ड्राइवर को इससे भी ज्यादा मिलता है) अगर अब पूछेंगे कि क्या करना है तो जवाब मिलेगा... बस इस बार कंपनी का प्रॉफिट टाग्रेट पूरा हो जाए तो इनक्रीमेंट मिल जायेगा... और जब आप रिटायर होइएगा तो पास होगी दो लाख से कम की पीएफ और झाल बजाएं। (ड्राइवर का पीएफ आपसे ज्यादा होगा, मान लीजिए) - यह तो रूटीन जिंदगी।
अब अगर कभी ऐसा हुआ कि आपके मालिक का मूड खराब हो गया... असली मसाला तो अब आएगा। अगले दिन नोटिस मिलेगा... कल से न आएं... हमारी जरूरत पूरी हो गई है। फिर तो रूटीन के काबिल नहीं... न बच्चों की फीस भर पाऐंगे और न ही अरमानों से ली डिस्कवर गाड़ी की इएमआई...
फिर सोचेंगे... साला ड्राइवर की तो नौकरी भी पर्मानेंट होती है...
(ड्राइवर मात्र एक संबोधन है... माना जाता है ड्राइवर बड़े लोगों के छोटे काम के लिए रखते हैं... मीडिया पर्सन की तो उनसे बुरी हालत है।)

Vikas Kumar
अगर आधी रात के बाद कार्यक्रम की घोषणा करने के बाद अगले दिन दोपहर दो बजे तक 32 लोग जंतर मंतर पर न केवल जुट जाएँ बल्कि लगभग पाँच घंटे तक मिल-जुलकर आगे की रणनीति तय करें तो इसका मतलब है कि मुद्दे में सचमुच दम है। मुद्दा है सीएनएन-आईबीएन के लगभग 350 मीडियाकर्मियों को रातों-रात नौकरी से निकाल दिए जाने का। मुद्दा है उन गर्भवती महिलाओं के अधिकारों की रक्षा का जिन्हें अचानक नौकरी चले जाने के बाद स्वास्थ्य से लेकर गृहस्थी तक के तमाम मोर्चों पर संघर्ष करना है। मुद्दा उन लोगों के श्रम की गरिमा की रक्षा का है जिन्हें अनुबंध की तमाम अटपटी शर्तों को आँख मूँदकर स्वीकार करके अपना पेट पालना पड़ता है। मुद्दा तो जनता को गूँगा बनाने की साज़िश के विरोध का भी है जिसके तहत ऐसे लोगों को चुन-चुनकर नौकरी से निकाला जाता है जो जनवादी पत्रकारिता की हत्या में शामिल होने से इनकार करने की हिम्मत दिखा सकते हैं। अगर आप ऐसे मौकों पर चुप बैठे रहते हैं तो कल आपके लिए भी शायद ही कोई आवाज़ उठाएगा।

इस बैठक में ही हमारे मंच का नाम तय किया गया। अभी 'पत्रकार एकजुटता मंच (Journalist Solidarity Forum)' नाम पर सहमति बनी है। यह भी तय किया गया कि हमारा संघर्ष केवल छँटनी के मसले तक सीमित नहीं रहेगा। हमें अनुबंध में मनचाही शर्तें डालकर नौकरी पर रखने की व्यवस्था का भी विरोध करना है। हालाँकि अभी हमें अपना ध्यान छँटनी के मुद्दे पर ही केंद्रित रखना है। उम्मीद है कि आप 21 अगस्त को दोपहर दो बजे नोएडा सेक्टर-16 में CNN IBNसीएनएन-आईबीएन और IBN7आईबीएन-7 के ऑफ़िस के सामने विरोध-प्रदर्शन में शामिल होने के बाद 31 अगस्त की जनसभा में भी मौजूद रहेंगे।


Vikas Kumar
"अचानक से कार्यक्रम बना. आनन-फानन में लोगों को मैसेज भेजे गए. फोन से संपर्क किया गया. और इसके बाद आज दिन की बैठक में 32 के करीब पत्रकार साथी जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए. लगभग 4-5 घंटे की बातचीत के बाद ये तय हुआ कि हमारा अगला हमला सीधे सीएनएन आईबीएन और आईबीएन 7 के नोएडा स्थित ऑफिस के बाहर 21 अगस्त दिन बुधवार दोपहर 2 बजे होगा. हम उस दिन ऑफिस के बाहर इकट्ठा होंगे और संस्था के इस दमनकारी और अमानवीय एकतरफे फैसले (टीवी 18 से एक झटके में तमाम मानवीय एवं कानूनी पहलुओं का मजाक बनाते हुए 350 लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया) के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराएंगे.आप लोगों तक इस आंदोलन से संबंधित सभी जरुरी जानकारियों को पहुंचाने के लिए ये फेसबुक इवेंट पेज बनाया गया है.आंदोलन से संबंधित इस इवेंट पेज को शेयर करके अधिक से अधिक लोगों (खासकर के पत्रकार साथियों) तक पहुंचाएं.."
एक बात फ़ेसबुक पर बड़ी-बड़ी हाँकने वाले मीडियापुत्रों के लिए। जनता आपकी चुप्पी की अनदेखी नहीं कर रही है। पूँजी के साथ गलबहियाँ करके और नैन मटकाकर आप प्रगतिशीलता की माँग में सिंदूर भरने का जो नाटक कर रहे हैं उसके दर्शक बेवकूफ़ नहीं हैं। अगर एक ही मुद्दे पर आपका रिकॉर्ड रुक गया है तो हमारे कानों ने भी कोई कसम नहीं खाई है कि ये आपकी बातें पूरे सम्मान के साथ शरीर के अंदर ले जाएँगे। आपका सेठ आपको लाख रुपये की सैलरी कहीं इसलिए तो नहीं दे रहा है कि आप जनता को तमाम मुद्दों पर बाँटकर रखें और उसकी ऊर्जा को कभी हमले की शक्ल न लेने दें। मीडिया मे आपके सामने काम शुरू करने वाले बच्चे अभी नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं और आप फ़ेसबुक पर व्याकरण, संगीत और संस्कृति का पाठ पढ़ा रहे हैं। आपसे अच्छे तो आपके मालिक हैं जिनका एजेंडा एकदम साफ़ है। उदाहरण तो कई हैं लेकिन मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अभी यही शाकाहारी उदाहरण दे रहा हूँ।

सुयश सुप्रभ
August 19
जेएनयू के छात्रों से एक अपील करना चाहूँगा। मुझे मालूम है कि अभी आप अपनी छात्रवृत्ति बढ़ाने के लिए भूख हड़ताल पर बैठे हैं, लेकिन आपसे इतनी उम्मीद ज़रूर है कि आप सीएनएन-आईबीएन के 300 से अधिक मीडियाकर्मियों को रातो-रात नौकरी से निकाल दिए जाने की घटना को व्यापक संदर्भ में देखते हुए इस मामले में विरोध की अपनी भूमिका ज़रूर निभाएँगे। बहुत-से लोग इस मुद्दे को केवल एक कंपनी तक सीमित करके देख रहे हैं, लेकिन यह नवउदारवादी नीतियों के कारण श्रम से जुड़े नियमों के लगातार कमज़ोर होते जाने का ही उदाहरण है। जिस समाज में ठेके पर काम देने वाली कंपनियों को मनमानी करने की छू दे दी जाती है, उसका अधिक समय तक सुरक्षित रह पाना संभव नहीं होता है। कुछ साथी पेड मीडिया की बात करके इस मुद्दे से अलग रहने की बात कर रहे हैं। कंपनी में नियम तय करने वाले मालिकों और उन्हें मजबूरी में लागू करने वाले लोगों के अंतर को नहीं समझने के कारण इस मामले की ऐसी गलत व्याख्या की जा रही है।

सुयश सुप्रभ
August 19
जंतर मंतर पर पुलिस को खदेड़कर आगे बढ़ने वाली जनता भी इसी देश में मौजूद है। समस्या यह है कि यह जनता खुद को क्षत्रिय मानती है और जोधा बाई नाम का सीरियल बंद करने के लिए न केवल पिट सकती है बल्कि दूसरों को पीट भी सकती है। दूसरी समस्या यह है कि इसी दिन जंतर मंतर पर छँटनी का विरोध करने वाले मीडियाकर्मी इस समूह की ताकत को देखकर बस इस बात का अफ़सोस करके रह जाते हैं कि ऐसी एकता मीडिया में क्यों नहीं दिखती है। यही सच है हमारे समाज का। मुद्दे की बात पर लोगों को साँप सूँघ जाता है और फ़ालतू की बातों के लिए दुनिया भर का उत्साह पैदा हो जाता है।

सुयश सुप्रभ
August 20
अगर आपने पत्रकारों को पूँजी के दबाव से मुक्त करने के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया तो भविष्य में अपनी हर चीख के बेआवाज़ होने के खतरे का सामना करने के लिए तैयार रहिए। कल दोपहर दो बजे नोएडा में आयोजित विरोध-प्रदर्शन में अलग-अलग संस्थानों के पत्रकार तमाम मतभेदों को भुलाकर अपने क्षेत्र की गरिमा को बचाने का हौसला लेकर जुटने वाले हैं। इस मंच का नाम 'पत्रकार एकजुटता मंच' रखा गया है और इस नाम से ही आपको इस बात का अंदाज़ा हो जाएगा कि यह आंदोलन किसी एक मुद्दे या संस्थान तक सीमित नहीं है। अगर आप कल नोएडा नहीं आ सकते हैं तो कम से कम इस फ़ोटो को साझा करके अपनी आवाज़ को बुलंद बनाने की कोशिश ज़रूर करें। बहुत-से युवा साथी आपकी ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं। उन्हें निराश न करें।

सुयश सुप्रभ
August 20
हमें बेहतर समाज के लिए बेहतर मीडिया चाहिए। जनवादी मीडिया के लिए इसे पूँजी के दबाव से यथासंभव मुक्त रखने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि समाज यह मानकर मीडियाकर्मियों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देता कि सब पैसा खाकर खबर छापते हैं। मालिकों की नीतियों को मजबूरी में लागू करते हुए न जाने कितनी परेशानियों का सामना करके जनता के हितों की रक्षा करने वाली खबरें छापने वाले कलमवीरों की परेशानी कोई नहीं समझना चाहता। किसी बड़े लेखक ने कहा है कि हमारा मूल्यांकन हमारे वर्तमान से नहीं बल्कि हमारे इरादों के आधार पर होना चाहिए। 'सबकी नीयत में खोट है' की मानसकिता से हम अपने जीवन में तमाम कुकर्म करने की छूट पाना चाहते हैं। ऐसी सोच से समाज पीछे ही जाता है। कल नोएडा में श्रम की गरिमा का मज़ाक उड़ाने वाले लोगों के विरोध में आपकी आवाज़ भी शामिल होनी चाहिए। कहीं न कहीं से शुरुआत तो होनी ही चाहिए। मीडियाकर्मियों के पास अभी खोने के लिए केवल अनुबंध बचा है जिसकी शर्तें उन्हें न चैन से जीने देती हैं न मरने। यही शर्तें रूप बदलकर आपके जीवन में भी अँधेरा पैदा करती हैं।

सुयश सुप्रभ
August 20
पत्रकारों को मजीथिया बोर्ड के मसले पर भी संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। जब इस बोर्ड ने पत्रकारों को समुचित वेतन देने की बात कही तो मिड डे ने संघर्ष की बात कर रहे दिल्ली ब्यूरो के तमाम पत्रकारों को रातों-रात नौकरी से निकाल दिया। मुंबई ब्यूरो के पत्रकारों को कहा गया कि वे सरकार से यह कह दें कि सभी पत्रकार अपने वेतन से संतुष्ट हैं। पूँजी की इस तानाशाही में आप पत्रकारों से यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे प्रगतिशीलता की मशाल जलाकर आपके घर को रोशन करेंगे तो आप सचमुच बहुत नादान हैं। अपने पत्रकार साथियों की मजबूरी समझिए और उनका साथ दीजिए। कल या तो नोएडा पहुँचिए या फ़ेसबुक, ट्विटर जैसी वेबसाइटों के माध्यम से उनके संघर्ष को मज़बूत बनाइए। हम और आप द्वीप पर नहीं रहते हैं। स्वार्थी बनने की सीख देने वाले लोगों की राजनीति समझिए। रोटी की लड़ाई मिल-जुलकर ही लड़ी जा सकती है।

सुयश सुप्रभ
August 21
सबसे आसान होता है / पालतू बन जाना / सेठ का दिया काम / चुपचाप करना / और डपटकर / दूसरों से कराना / जो होता आया है / उसे सिर झुकाकर / मान लेना / और जो हो सकता है / उससे दूर हट जाना / डगर कठिन होती है / तो आज़ादी की / जिसमें न तो / उधार के दिमाग से / काम चलता है / न उधार के विचार से / अपने विचारों के अँधेरे / से गुज़रकर / तिलिस्म खोलने का एहसास / मन को रोशनी से / भर देता है / लेकिन आदतन खुशामद / करने वाला मन / पालतू बनकर ही / खुश रहता है

सुयश सुप्रभ
August 21
एक गाँव में आग लगी। कुछ लोग पानी लाने दौड़े, लेकिन एक औरत इस ज़िद पर अड़ी रही कि उसे गहना चाहिए। उसका यह मानना था कि जब तक उसे गहना नहीं मिल जाता तब तक गाँव की किसी और समस्या के बारे में वह न कुछ बोलेगी न सोचेगी। इसे वह अपना लोकतांत्रिक अधिकार भी मानती थी। कुछ लोग ऐसे भी निकले जो तुरंत दूसरे गाँव में पहुँचकर आग से बचने के तरीकों के बारे में लोगों को ज्ञान देने लगे। कुछ लोग बरसों से आग बुझाने पर शोध कर रहे थे। जब आग लगी तो वे इस तरह गायब हुए कि गाँववाले आज तक उन्हें नहीं खोज पाए हैं। ताज़ा खबर यह है कि उस गाँव में अब भी आग लगी हुई है। मीडिया पत्रकार शोषण

सुयश सुप्रभ
August 21
पहले तो नोएडा में आज के विरोध-प्रदर्शन से जुड़ी कुछ गलत धारणाओं के बारे में बात करूँगा। आज कड़ी धूप में जो साथी भव्य होटल जैसी बिल्डिंग के सामने नारे लगा रहे थे वे केवल 1-2 लाख की सैलरी पाने वाले मीडियाकर्मियों के लिए वहाँ नहीं जुटे थे। वे तमाम काम छोड़कर वहाँ पहुँचे थे क्योंकि उन्हें उन लोगों की चिंता है जिन्हें दो या तीन हज़ार रुपये का वेतन देकर जानवर की तरह खटाया जाता है। वे उन पत्रकारों के लिए भी वहाँ जुटे थे जो सरोकारी पत्रकारिता के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार हैं। वे कुछ पत्रकारों को लाख-दो लाख की सैलरी देकर बाकी लोगों को न्यूनतम से भी कम सैलरी देकर दलाल संस्कृति को बढ़ावा देने का विरोध करने के लिए भी वहाँ जुटे थे। आज नारों में दम था, आवाज़ बुलंद थी और हौसला आसमान छू रहा था। आने वाले दिन दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण बनने वाले हैं। इस आंदोलन से समस्या केवल उन लोगों को होगी जिनकी नाभि सत्ताधारी वर्ग से जुड़ी हुई है।

सुयश सुप्रभ
August 21
हर सवर्ण शोषक होता है। हर गोरा आदिवासियों और अश्‍वेतों का दुश्मन होता है। पूँजी की आग में जाति जैसी गंदगी जल जाती है। मीडियाकर्मियों की लड़ाई सवर्णों की लड़ाई है, इसलिए हम उनका साथ नहीं देंगे। सारे मीडियाकर्मी पैसा खाकर खबर बेचते हैं। सूची लंबी है। बहुत-से लोग इन सरलीकरणों से अपना घर चला रहे हैं क्योंकि ऐसी बातें लिखने से वे सत्ताधारियों की आँखों के तारे और नाक के बाल (बचपन में रटा मुहावरा बरसों से किसी काम नहीं आ रहा था) बन जाते हैं। इस सुविधावादी प्रगतिशीलता के खतरों को समझिए और आज दो बजे या तो नोएडा पहुँचिए या ट्विटर, फ़ेसबुक आदि वेबसाइटों के माध्यम से मीडियाकर्मियों के आंदोलन को मज़बूत बनाइए। अगर आप ट्विटर पर हैं तो हर ट्वीट में jsf लगाकर इस आंदोलन से जुड़ी खबरों पर नज़र रख सकते हैं। 

सुयश सुप्रभ
August 22

JSF पत्रकार एकजुटता मंच के साथी जब नोएडा में नारे लगा रहे थे तब मॉलनुमा ऑफ़िसों में दबी ज़ुबान से इस आंदोलन के समर्थन में बातें हो रही थीं। हम सभी साथियों को इस बात का एहसास हो रहा था कि जड़ता के कारण पैदा होने वाली चुप्पी के टूटने का असर इस औद्योगिक नगरी में देर तक रहेगा। पत्रकारिता की गरिमा की रक्षा का मतलब ऐसा माहौल बनाना भी होता है जिसमें कोई जैन या अंबानी खबरों को उत्पाद की तरह बेचने की हिम्मत नहीं कर सके। पत्रकारिता और धंधे में जो अंतर होता है उसे कायम रखे बिना न तो पत्रकारों के अधिकार सुरक्षित हैं न समाज के मूल्य। समाज को भी पत्रकारिता के कॉरपोरेट मॉडल का विकल्प खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर आप चाहते हैं कि आपके सामने खबर की शक्ल में विज्ञापन नहीं परोसा जाए तो आपको पत्रकारों के आर्थिक शोषण का विरोध करना होगा। व्यापारियों को तमाम सहूलियतें देने के कारण आपकी थाली में ज़हरीली सब्ज़ी ने अपनी जगह बना ली है। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में विचार में भी इतना ज़हर घुल जाए कि आप अच्छे विचार की केवल कल्पना करते रह जाएँ।



बुधवार, 21 अगस्त 2013

मैं नास्तिक क्यों हूँ: भगत सिंह

(यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है. इस लेख में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है. यहाँ इस लेख का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है.)
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     प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी.
     प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है.
     उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है.
     लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी.
     यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना.
     यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है.
     जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.
     एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला.
     लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ.
     मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.
     हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.
     जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?
     कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.
     कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.
     कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.
     नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.
     और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?
सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.
     एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.
     तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?
फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?
     मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?
     सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
     इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है.
     ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
     ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?
     इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
     मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?
     तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.
     मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.
     उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.
     फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.
     कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.
     और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.
     और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.
     तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.
     मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.
उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.
     लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.
     न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार.
     आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.
     केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है.
     लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?
     तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.
     मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
     अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.
     मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?
     क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो.
     किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता.
     वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.
     उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.
     मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?
     और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?
     यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
     मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.
     जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो.
     वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.
     मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
     ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
     उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
     वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें.
     आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे.

     चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं.
     अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं.
     वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं.
     यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं.
     कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.

     क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो.
     सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा. यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.
     कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो.
     और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है.
     तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?
     जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है.
     उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं.

     स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?
     मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.
     अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.
     कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.
     यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.
राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.
     ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.
     अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.
     जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए.
     जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.
     इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है.
     वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.
     समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.
     इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.
     मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.
     मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.
     मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.
     देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.
     जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.
     स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.

(बीबीसीडॉटकोडॉटयूके से साभार)