गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

लेखन कार्य के बारे में


हर व्यक्ति को अपने विचारों और मनोभावों को अभिव्यक्त करने की जरुरत पड़ती है, चाहे कोई भी देश-काल-परिस्थिति हो. अभिव्यक्ति के प्रमुख रूप हैं-- बोलकर, लिखकर और इशारों से. अभिव्यक्ति का लिखित रूप सबसे सटीक और उन्नत माध्यम है. इसलिए शुद्ध, सटीक और प्रभावशाली लेखन कला को सीखना एक जरुरी काम है.
लेखन कार्य के तीन चरण होते है – लेखन पूर्व के कार्य, लेखन कार्य, और पुनर्लेखन.
लेखन पूर्व के कार्य
लेखन-पूर्व के कार्य लिखने की तैयारी से सम्बंधित होते हैं. इसके बिना अच्छा लेखन संभव नही होता. लिखने से पहले कुछ बातें सुनिश्चित कर लेना जरूरी होता है –
(१)    लिखने का मकसद यानी दूरगामी उद्देश्य
(२)  लेख का फौरी उद्देश्य
(३)  पाठक वर्ग
(४)  तथ्य संग्रह
लिखने का दूरगामी उद्देश्य हमारे फौरी उद्देश्य को निर्धारित करने में मदद पहुँचाता है. दूरगामी उद्देश्य का एक उदाहरण – किसी फैक्ट्री – विशेष में पूंजीपति मजदूरों के श्रम का शोषण करता है और उसका चरित्र अमानवीय है, यह बात बताना.
पाठक वर्ग तैयार कर लेने से हम उस वर्ग की जरूरतों के अनुसार अपनी बात कहते हैं और उस वर्ग के अनुसार भाषा-शैली का चयन करते हैं, बिम्ब-प्रतीक चुनते हैं और उसे निष्कर्ष तक पहुँचाते हैं.
तथ्य से सत्य का निगमन वैज्ञानिक पद्धति है, अतः कोई भी निष्कर्ष निकलने के पहले हमें तथ्य संग्रह करना चाहिए. तथ्य संग्रह का अलग-अलग तरीका हो सकता है जो आवश्यकतानुसार बदलता है. जैसे- तथ्यों के लिए हम खुद ही प्रत्यश जाँच-पड़ताल कर सकते हैं, पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर हो सकते हैं या इंटरनेट की मदद ले सकते हैं या पुस्तकालयों से मदद ले सकते हैं. तथ्य संग्रह में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि निम्नांकित प्रश्नों का उत्तर अवश्य मिले – क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ, किसने. उदाहरण के लिए इस कथन को लें – गुडगाँव के मजदूरों ने 1 मई 2010 को मजदुर दिवस मनाने के लिए सभाएँ की. इस कथन में उपयुर्क्त सभी छ प्रश्नों का उत्तर है. तथ्य संग्रह करते समय हमें इनके बारे में गहराई से जानने का प्रयास करना चाहिए.
विचार-विमर्श द्वारा विषय-वस्तु का निर्धारण कर लेना लेखन-पूर्व कार्य का आवश्यक अंग है. लेखक को लेख सम्बन्धी योजना बना लेनी चाहिए और यह भी तय कर लेना चाहिए कि संग्रह किये गए तथ्यों में से हमें क्या-क्या प्रयोग करना है. लेखन कार्य शुरू करने से पहले लेख की रुपरेखा बना लेना जरुरी होता है. साथ ही आपसी विचार-विमर्श द्वारा उस रूपरेखा में आवश्यक सुधार कर के उसे बेहतर बना लेना भी जरुरी होता है.
लेखन-पूर्व के चरण में लेखक नए विचार और तर्क से परिचित हो जाता है. लेकिन अभी भी ये विचार और तर्क उसकी अपनी सोच-समझ में रचा-बसा और उसका अंग नहीं बने होते हैं. अतः बार-बार प्रयास करके उन विचारों और तर्कों की स्पष्ट समझ हासिल कर लेना जरुरी होता है. जितनी स्पष्ट समझ होगी उतनी ही स्पष्ट अभिव्यक्ति होगी. इस स्पष्टता को हासिल करने के लिए विषय का महत्व और उसका औचित्य स्पष्ट होना चाहिए. लेखक में सटीकता का आग्रह होना चाहिए. तथ्य लेखक को सटीक होने में मदद पहुँचाते हैं. इसके लिए विभिन्न सन्दर्भ सामग्रियों का अध्यन जरुरी होता है.
लेखन की योजना यदि बड़ी हो तो उसे कुछ भागों में बाँट लेना चाहिए, जैसे-– समस्या को चिह्नित करना, तथ्य संग्रह, पद्धति, परिणाम और विमर्श.
लेखन कार्य
लेखन-पूर्व के कार्य संपन्न हो जाने के बाद लेखन कार्य शुरू करना चाहिए और उद्देश्य को कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए. जो भी लिखें उसमें स्पष्टता होनी चाहिए, उसे संक्षेप में और सटीक रूप से  लिखना चाहिए तथा सरल-सुग्राह्य तर्कों का प्रयोग करना चाहिए. विषयों और तथ्यों को क्रमानुसार लिखना चाहिए तथा विषयवस्तु सुनियोजित और क्रमबद्ध होनी चाहिए. साथ ही नैतिकता के मानदंडों का पालन करते हुए मर्यादाओं और सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए.
अच्छा लेखक यह जानता है कि उसे क्या कहना है और पाठक को लेख के माध्यम से कहाँ ले जाना है. लेकिन पाठक के सामने केवल वही पंक्तियाँ होती हैं जिन्हें वह पढ़ रहा होता है. अतः लेखक को चाहिए कि वह पाठक को अपनी विचार-यात्रा का सहभागी बनाए. पाठक को आसान और सुगम रास्ते से अंतिम लक्ष्य तक ले जाना चाहिए. यानी, उदाहरणों का चुनाव, बिम्बों का चयन आदि पाठक के अनुकूल होना चाहिए तथा जटिल विचारों को सरल, सुगम और सुबोध बनाना चाहिए ताकि पाठक को वह आसानी से समझ में आ जाए. तभी लेखक अपने पाठकों की अपेक्षा पर खरा उतरता है.
लेखन सम्बन्धी योजना तो शुरू में ही बना ली जाती है, लेकिन वह अपरिवर्तनीय नहीं बल्कि आवश्यकतानुसार  उसे परिवर्धित करते रहना चाहिए. बहुत से महत्वपूर्ण विचार दिमाग में लिखते समय भी आ सकते हैं. लेख में इनका समावेश तभी संभव है, जब योजना और रुपरेखा परिवर्धित होती रहे.
लेख कि भाषा-शैली सरल होनी चाहिए. विद्वानों का तो यहाँ तक कहना है कि सरलता के लिए 10वीं कक्षा के बच्चों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा और वाक्य संरचना का प्रयोग करना सबसे सही है.
किसी भी पाठक के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता है कि लेखक कितना अधिक जानता है, बल्कि यह होता है कि वह स्वयं क्या जानना चाहता है. अतः इस सम्बन्ध में लेखक को पाठक के प्रति सचेत रहना चाहिए.
पुनर्लेखन कार्य
लेख तैयार हो जाने के बाद उसके पुनर्लेखन का चरण शुरू होता है. तैयार लेख को बार-बार पढ़ कर उसमें आवश्यक सुधार और परिवर्तन करना चाहिए. यह लेखन कार्य का आवश्यक अंग है और इसे गैरजरूरी नहीं समझना चाहिए. हालाँकि आदर्श और पूर्णता को प्राप्त करना असम्भवप्राय होता है, फिर भी उसके लिए बार-बार प्रयास किया जाना चाहिए. पुनर्लेखन इसमें सहायक होता है.
पुनर्लेखन के समय पुरानी पड़ चुकी और अनावश्यक बातों को हटा देना चाहिए तथा कठिन शब्दों और जटिल वाक्यों की जगह आसान शब्द और सरल वाक्य प्रयोग करने चाहिए. पैराग्राफों को आवश्यकतानुसार छोटा कर देना चाहिए और उन्हें पुनर्संयोजित कर देना चाहिए तथा उलझे हुए और जटिल पैराग्राफों को सरल करके उसकी विषयवस्तु को बिन्दुवार सजा देना चाहिए. दिए गए तर्कों एवं तर्कप्रणाली को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए तथा सूत्रों व् शब्दावलियोंand terminकी व्याख्या कर देनी चाहिए, ताकि पाठक उन्हें आसानी से समझ जाएँ.
लेख में यदि अनावश्यक रूप से आक्रामक और बडबोले शब्दों का प्रयोग हुआ हो तो उन्हें हटा देना चाहिए तथा यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि लेख के माध्यम से किया गया विचार-विनिमय नीरस और उबाऊ न हो.
लेख को अंतिम रूप देने के पहले तथ्यों को फिर से जाँच लेना चाहिए ताकि गलती कि संभावना कम से कम रह जाए.
आवश्यक हो तो अंतिम रूप देने से पहले कुछ संभावित पाठकों को वह लेख पढवा कर उनकी टिप्पणियाँ माँग लें और महत्वपूर्ण टिप्पणियों के अनुरूप लेख में आवश्यक सुधर कर लें.
लेखन प्रक्रिया में कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए. दो पर्यायवाची शब्दों का एक अर्थ एक होते हुए भी उनमें सकारात्मक-नकारात्मक के भाव छिपे होते हैं. अतः दोस्त के लिए सकारात्मक शब्द और दुश्मन के लिए नकारात्मक शब्द चुनने चाहिए. इसी तरह वाक्य संरचना भी ऐसी होनी चाहिए जिसमें आवश्यकतानुसार सम्मान देने या माखौल उड़ाने के भाव हों, फिर भी गरिमा बनी रहे.
लेखक को चाहिए कि अमूर्त विचारों को मूर्त करने के लिए वह ठोस उदहारण तथा बिम्बों और प्रतीकों का सहारा ले. प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी इसमें सहायक होती हैं, क्योंकि उनमें बिम्बों की प्रधानता होती है.
लेखक को अपने निष्कर्ष पाठक पर थोपने नहीं चाहिए. इसके विपरीत प्रयास यह होना चाहिए कि तथ्यों और तर्कों के जरिये पाठक खुद ही उस निष्कर्ष तक पहुँचे. लेखन कला की निपुणता इसी में निहित होती है और इसे बार-बार प्रयास से ही पाया जा सकता है.

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