मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

मई दिवस और मेहनतकश वर्ग के सामने चुनौतियां


मई दिवस मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास में मील का पत्थर है।

मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संपन्न कई क्रांतियों के बाद मानव इतिहास की यह सबसे महत्वपूर्ण घटना है। लोकप्रियता के हिसाब से तो यह दिन संभवत: अव्वल है जिसे सबसे बडे पैमाने पर मनाया जाता है, यह मामले का एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू यह है कि यह आयोजन अधिकाधिक खोखला होता जा रहा है। बेजान धार्मिक उत्सवों की तरह। इस महान दिन का राजनीतिक निहितार्थ उत्तरोत्तर लुप्त होता जा रहा है और आयोजन के लिए आयोजन का रिवाज बनता जा रहा है। पूंजीवादी और अवसरवादी (कथन में समाजवादी और करनी में पूंजीवादी) राजनीति के घने बादलों के बीच मई दिवस का सूर्य तत्काल ढंक सा गया है। इसलिए मजदूर वर्ग की पार्टी के सामने सबसे बड़ा कार्यभार है कि वह मई दिवस की उस पुरानी महिमा को पुनर्स्थापित करे जिसमें इसके निकट आते ही पूंजीपति वर्ग कांप उठता था। उसे अंजाम देने के लिए पूंजीवादी पार्टियों के साथ-साथ नकली कम्युनिस्टों से भी टक्कर लेना होगा।

मई दिवस का इतिहास काफी पुराना (126 साल) है और काफी समृध्द भी। लेकिन मजदूर वर्ग का समग्र राजनीतिक इतिहास जितनी जटिल और जय-पराजय की विविध घटनाओं से भरा पड़ा है, उनकी स्पष्ट छाप मई दिवस के इतिहास पर दिखाई पड़ती है। ऐसा होना बिल्कुल लाजिमी है। अपने वर्तमान कार्यभार को आगे बढ़ाने के लिए, मई दिवस की पुरानी गरिमा को फिर एक बार स्थापित करने के लिए, हमें उसके इतिहास पर सरसरी निगाह डालनी होगी।

मुख्य सवाल यह है कि हम मई दिवस क्यों मनाते हैं? 

इतिहास के अपने नायकों को क्यों याद करते हैं? इसलिए कि हम उनके संघर्ष और बलिदान की उदात्त भावना से प्रेरणा ले सकें और उनके संघर्ष की परिस्थितियों, नारों और तौर-तरीकों को ठीक से समझ-बूझकर आज की परिस्थिति में उनका सर्जनात्मक उपयोग कर सकें। यह मई दिवस मनाने का क्रान्तिकारी तरीका है। मजदूर वर्गीय तरीका है। उसके विपरीत मई दिवस (1 मई 1886) की घटनाओं को याद कर लेना और शहीदों की प्रतिमाओं पर फूल माला चढ़ाकर इतिश्री कर लेना पूंजीवादी तरीका है। अवसरवादी तरीका है। इतिहास दोनों किस्म की घटनाओं से भरा पड़ा है।   हम अपनी बात यहीं से शुरू करते हैं कि आखिर उस दिन क्या हुआ था जिसने उसे ऐतिहासिक बना दिया:

1 मई 1886 को संयुक्त राय अमेरिका में मजदूरों की हड़ताल, शिकागो के मिशिगन एवेन्यू में प्रभावशाली जुलूस। मजदूरों की मांग थी- आठ घंटे का कार्यदिवस, आठ घण्टे आराम तथा आठ घण्टे मनोरंजन। 3 मई को मेककार्मिक रीपर कारखाने के हड़ताली मजूदारों पर बर्बर हमला, इसमें 6 मजदूर मारे गये और कई घायल हुए। 

4 मई को हे मार्केट स्क्वायर पर प्रदर्शन, शांतिपूर्ण सभा पर पुलिस का हमला, भीड़ में बम फेंका गया। एक सार्जेंट की मृत्यु हुई। पुलिस मजदूर भिड़ंत। इसमें 7 पुलिस के सिपाही मारे गए और 4 मजदूर शहीद हुए। मजदूर पारसन, स्पाइस, फिशर और एंगेल्स पर मुकदमा व फांसी और अन्य मजदूर नेताओं को कैद, 18 जुलाई 1889 को दूसरे इंटरनेशनल की पेरिस कांग्रेस ने 1 मई को अंतराष्ट्रीय मजदूर एकता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। 

1 मई 1890 को यूरोप और अमेरिका के मजदूरों ने इस दिन को बड़े धूमधाम से मनाया।  यही है संक्षेप में मई दिवस का घटनाक्रम, और यहीं से शुरू हुई मई दिवस की परंपरा।

1 मई 1886 का यह विद्रोह न तो आकस्मिक था और न ही अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन से अलग-थलग। उनकी यह कार्रवाई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की उपज थी और बाद में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर एकता का केंन्द्र बन गयी। 1867 में उसने इंटरनेशनल की जनरल कौसिंल का यह निमंत्रण स्वीकार किया कि अगले कांग्रेस में अपना एक प्रतिनिधि भेजेगा। ऐसा हुआ भी। अमेरिका के स्तर पर इस आंदोलन को संगठित करने की प्रक्रिया भी 1884 से शुरू हो चुकी थी। अमेरिकी फेडरेशन ऑफ लेबर (एक नवगठित संगठन) ने 7 अक्टूबर 1884 के अधिवेशन में ही प्रस्ताव ले लिया था कि 1 मई 1886 से कानूनी तौर पर काम का दिन 8 घंटों का होगा। भविष्य को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की इस घटना ने किस हद तक प्रभावित किया, उसका खुलासा मार्क्स के साथी एंगेल्स की प्रतिक्रिया में मिलता है। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की चौथे जर्मन संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा- 'मैं जिस समय ये पंक्तियां लिख रहा हूं, उस समय यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा वर्ग अपनी ताकतों का सिंहावलोकन कर रहा है। पहली बार 'एक' ही फौरी उद्देश्य के लिए-आठ घंटों के दिन को कानून द्वारा कराने के लिए लड़ रहा है।'

'जो नजारा हम आज देख रहे हैं, वह सभी देशों के पूंजीपतियों और जमींदारों को यह बता रहा है कि आज के दिन सही मायनों में सभी देशों के सर्वहारा एक हो गये हैं, काश! आज मेरे साथ मार्क्स होते और यह सब स्वयं अपनी आंखों से देखते'!

8 घंटों के कार्यदिवस और मजदूर वर्ग की व्यापक एकता के अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जिसकी चर्चा एंगेल्स ने की। उसने तत्कालीन पूंजीपतियों और पूंजीवादी चिंतकों के इस पाखंड का भंडाफोड़ किया कि अमेरिका वर्ग शत्रुता से ऊपर है। इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने 3 जून 1886 के अपने पत्र में लिखा- ''पूंजीवादी सोच है कि अमेरिका, वर्ग दुश्मनी और वर्ग संघर्ष से ऊपर है। अब यह भ्रम टूट गया है। धरती का अंतिम पूंजीवादी स्वर्ग तेजी से पुरगाटोरियों में तब्दील होता जा रहा है। यूरोप की तरह नरक बनने से उसे एक ही चीज बचा सकती है कि अमेरिका के नवोदित सर्वहारा का विकास कितनी तेज गति से हो पाता है।'' लेकिन इतिहास वह रूख नहीं अपना सका। साम्राज्यवाद के विकास ने अमेरिका सहित सभी साम्राज्यवादी देशों के मजदूरों को अवसरवाद के दलदल में धकेल दिया और अमेरिका पूंजीवाद का नरक बनने से नहीं बच सका।

मई दिवस को दूसरे इंटरनेशनल द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मजदूर एकता दिवस घोषित कर दिये जाने के कारण इसका स्वरूप तो अंतर्रष्ट्रीय हो ही गया था, वह मजदूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अभिन्न अंग भी बन गया।  इसी की जरूरत के अनुसार मई दिवस के नारे भी बदलते रहे और संघर्ष के रूप भी। अब यह सिर्फ आठ घंटे श्रम दिवस के लिए आंदोलन का दिन नहीं रहा, बल्कि इसके साथ बालिग मताधिकार, साम्राज्यवादी युध्द व औपनिवेशिक शोषण का खात्मा जैसे मुद्दे भी इसमें जुड़ गये। इसके मनाये जाने के स्वरूप में नये-नये बदलाव आते गये। पहले इसे उद्योगों में काम बंद रखकर मनाया जाता था। बाद में यह निर्णय लिया गया कि सभी औद्योगिक केंद्रों में मजदूर प्रदर्शन करें। प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ और यही पूंजीपतियों के लिए सरदर्द बन गया। मई दिवस मजदूरों के जीवन में इतना महत्वूपर्ण बन गया कि वे अपनी राजनीतिक विजय का जश्न भी इसी दिन मनाते। किसी देश के मजदूर अपनी विजय का जश्न मना रहे होते तो किसी देश के मजदूर अपने देश के पूंजीवाद के खिलाफ जुझारू तेवर का इजहार कर रहे होते थे। यही कारण था कि मई दिवस के नजदीक आते ही पूंजीपति कांप उठते थे, उनकी घबराहट बढ़ जाती थी।

साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही मजदूर वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक आंदोलन दो खेमों में बंट गया- क्रांतिकारी और अवसरवादी। तब हम कह सकते हैं कि साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के वर्तमान युग में अवसरवाद एक शाश्वत परिघटना के रूप में मौजूद रहा है। अतीत में तो ऐसे भी अवसर आये जब आंदोलन पर अवसरवाद का पलड़ा भारी हो गया। इस अवधि में आम लोगों के बीच यह धारणा हावी रही कि अवसरवाद ही मार्क्सवाद है। दूसरे इंटरनेशनल की अवधि, मोटे तौर पर ऐसी ही थी। बर्न्सटीन और काउत्स्की जैसे अवसरवादी लंबे समय तक मार्क्सवाद के प्रतिनिधि बने रहे। लेनिन ने इस अवधारणा को तोड़ा, इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने तथ्यों और तर्कों से इस बात का खुलासा किया कि मार्क्सवाद का मुखौटा पहने ये अवसरवादी साम्राज्यवाद के एजेंट हैं। अक्टूबर क्रांति में लेनिन की सैध्दांतिक प्रस्थापनाएं व्यवहार में बदल गयीं और तब आम जनता यह समझ पायी कि बोल्शेविक क्रांति का विरोध करने वाले लोग साम्राज्यवाद के एजेंट है। लेनिन की सैध्दांतिक प्रस्थापनाओं की जीत से अवसरवाद का नाश तो नहीं हुआ, लेकिन मार्क्सवाद पर अवसरवादियों का प्राधिकार खत्म हो गया और दुनिया के पैमाने पर ऐसे संगठन पैदा हुए जिनके झंडे पर लिखा था- साम्राज्यवाद और अवसरवाद का नाश हो।

मौजूदा स्थिति में हम एक उथलपुथल के दौर से गुजर रहे हैं। अगर 2010 मंहगाई, बदहाली तथा व्यापक बेरोजगारी व छंटनी का दौर रहा है तो 2011 ताकतवर जन उभार का एक यादगार वर्ष बनते जा रहा है। कार्ल मार्क्स के ''दुनिया के मजदूरों, एक हो'' आह्वान की निरंतरता में, तीसरे कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीय ने इसे ''दुनिया के मजदूरों तथा उत्पीड़ित जनता, एक हो'' के रूप में व्यापकता प्रदान किया। और इसी प्रकार के ताकतवर उभार पश्चिमी एशिया तथा गरीब के देशों में देखने को मिल रहे हैं। टयूनीशिया से पैदा होने वाली यास्मीन क्रांति की खूशबू मिस्र, बहरीन तथा यहां तक कि लीबिया तक फैल गई है। यह तथ्य है कि अमरीका तथा अन्य साम्राज्यवादी ताकतें लीबिया में ''सत्ता परिवर्तन'' के नाम पर वहां के आंदोलन में हस्तक्षेप कर उसे भटकाने की कोशिश कर रही हैं। बावजूद उसके, लीबिया में तानाशाही, मंहगाई तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के विद्रोह को छोटा नहीं किया जा सकता।

इसी तारतम्य में अन्ना हजारे के नेतृत्व में ''भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन'' जिसे पूंजीवादी मीडिया का भरपूर समर्थन मिला था। अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक की लेखन समिति के सदस्य कौन होंगे को बहस का मुद्दा बनाया तथा फासिस्ट नरेंद्र मोदी और जनविरोधी नीतीश कुमार को ''सुशासन'' का प्रमाण पत्र दिया। लेकिन इस आंदोलन में शोषित वर्गों के सवालों को नहीं उठाया गया तथा ''भ्रष्टाचार'' की परिभाषा में श्रम के कानूनी तौर पर लूट को शामिल नहीं किया गया। ''भ्रष्टाचार'' की इस परिभाषा में कम से कम इतना तो जोड़ा जाना चाहिए था कि किसी भी उद्योग में न्यूनतम वेतन का भुगतान नहीं किया जाना भ्रष्टाचार है। इस आंदोलन की केवल यही उपलब्धि रही है कि इससे एक नया शक्तिहीन विधेयक लिखने का अधिकार ही प्राप्त हुआ। लेकिन टयूनीशिया, मिस्र तथा लीबिया में जहां कम से कम, फासिस्ट नेताओं को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, यहां वो भी नहीं हुआ।

हालांकि, इस पर संदेह है कि टयूनीशिया तथा मिस्र के आंदोलन भ्रष्टाचार, मंहगाई तथा तानाशाही को खत्म कर पायेंगे । इन जगहों पर एक तानाशाह के बदले दूसरे तानाशाह को लाकर समस्या का समाधान किया जा रहा है। अगर इस तरह के ताकतवर आंदोलन इन बुराईयों को मिटा नहीं सकते तो क्या मेहतनकशों और अन्य उत्पीड़ित जनता के लिए कोई आशा बचती है? पश्चिम एशिया तथा गरीब के आंदोलन की कमजोरी यह रही है कि यद्यपि मेहनतकश वर्ग की इन आंदोलनों में व्यापक भूमिका रही है, लेकिन मेहनतकश वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका नहीं रही। इस प्रकार की नेतृत्वकारी भूमिका, जैसा कि दिखता है, इस प्रकार के ताकतवर स्वत: स्फूर्तता के सम्मुख, मध्यमवर्गी तथा उच्चवर्गीय बुध्दिजीवियों के हाथों है। मेहनतकशों तथा अन्य उत्पीड़ित जनता का इस प्रकार का ताकतवर आंदोलन केवल तभी सफल हो सकता है जब वह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में हो तथा नवजनवाद या समाजवाद की स्थापना-मेहनतकशों तथा उत्पीड़ित जनता के शासन की स्थापना उसका स्पष्ट लक्ष्य हो। केवल वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग ही इस प्रकार का नेतृत्व प्रदान कर सकता है। इस आंदोलनों ने यह साफ तौर पर दर्शाया है कि पश्चिम एशिया तथा गरीब के वामपंथियों की यह असफलता है कि वे इस प्रकार का एक मजदूर वर्गीय नेतृत्व नहीं पैदा कर पाए। 

सच तो यही है कि हालिया घटनाएं दर्शाते हैं कि हमारे देश में करोड़ों लोग भ्रष्टाचार, मंहगाई तथा गैर प्रजातांत्रिक कदमों के खिलाफ सड़क पर उतरकर संघर्ष करना चाहते हैं। आने वाले दिनों में हमारे देश के मजदूर वर्ग को देश की उत्पीड़ित जनता के साथ मिलकर इस प्रकार के आंदोलन में वर्ग सचेतन नेतृत्व प्रदान करने में समक्ष होना है।

हाल ही में जापान में आए सुनामी तथा वहां के फुकुशिमा नाभिकीय संयत्र की त्रासदी ने भी मजदूर वर्ग के एक और महत्वपूर्ण कार्यभार की ओर इशारा किया है। इसने शिद्दत से यह दर्शाया है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए आंदोलन भी एक महत्वपूर्ण कार्यभार है और इसमें उत्पीड़ित जनता को वर्ग सचेतन मजदूर वर्ग ही नेतृत्व प्रदान कर सकता है। साम्राज्यवाद अपने संकट को दूर करने की चाहत में इस दुनिया से ''मुनाफा'' की अंतिम बूंद को भी निचोड़ लेना चाहता है। दुनिया की जनता इसे कभी स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन यह आंदोलन कभी भी सफल नहीं होगा, बशर्ते इसका नेतृत्व वर्ग सचेतन मजदूर, वर्ग करे तथा इसका लक्ष्य सच्चे जनवाद तथा समाजवाद की स्थापना हो।

इस मई दिवस के अवसर पर क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वे तमाम गैर प्रजातांत्रिक कदमों - महंगाई, भ्रष्टाचार, पर्यावरण के क्षरण, भूमि हथियाने आदि के खिलाफ उत्पीड़ित जनता के संघर्ष के साथ एकजुट हों। यह सुनिश्चित करें कि ये आंदोलन सच्चे जनवाद तथा समाजवाद स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़े। क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों को इन कार्यभारों को पूरा करने में मजदूर वर्ग को सक्षम बनाना है।

-तुहिन देब (देशबंधु डॉट को डॉट इन से साभार)

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

अमरीकी साम्राज्यवाद के मन्सूबे और इराक युद्ध


(इराक और अफगानिस्तान की जनता ने अमरीका को अपनी जमीन से खदेड़ दिया। दुनिया में अब वह अपना मुंह दिखने के लायक नहीं रह गया है। सालों पहले अमरीका ने आतंकवाद के खात्मे और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने के बहाने इराक और अफगानिस्तान पर बर्बरता पूर्ण हमला किया था। ताकि वहां की खनिज संपदा और तेल को लूट सके। लाखों मासूम बच्चों के स्कूलों के ऊपर बम गिराकर उन्हें मार दिया गया, इराकी जनता के साथ मानवता को शर्मशार कर देने वाली क्रूरता बरती गयी। अमरीका के अनैतिक और जघन्य कारनामों का गवाह अबू गारीब जेल है। नीचे का लेख अमरीकी षड़यंत्रों का पर्दाफाश करने के लिए देश विदेश-१ में छपा था। जब तक अमरीकी साम्राज्यवाद के जुए के नीचे दुनिया की जनता कराहती रहेगी तब तक यह लेख हमें रौशनी दिखता रहेगा।)

अमरीकी आधिपत्य के खिलाफ लड़ रहे इराक के प्रतिरोध-योद्धाओं और वहाँ की जनता ने विश्वविजय के उसके चक्रवर्ती घोड़े की लगाम पकड़ ली, उसको चारों खाने चित करके चारों टांगों को चार खूँटों से बाँध दिया और कहा- ‘‘बस इतना ही, इससे आगे नहीं।’’

अमरीकी साम्राज्यवाद ने जब इराक पर आधिपत्य जमाने के लिए आक्रमण किया तो उसके कई मन्सूबे थे। पहला, इराक के ऊर्जा-स्रोतों पर एकाधिकार कायम करना। दूसरा, इराक को स्प्रिंग बोर्ड बनाकर भूमध्यसागर के दोनों ओर के तथा मध्य एशिया के ऊर्जा भण्डारों पर एकाधिकार कायम करना। उसका तीसरा मन्सूबा था, अपनी आधुनिकतम उन्नत तकनीक और सामरिक शक्ति-जैविक हथियारों, क्षेत्रीय पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले छोटे नाभिकीय हथियारों, अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक सामरिक हथियारों से लदे विमानवाही पोतों (एयर क्राफ्रट कैरियर) और पनडुब्बियों का नग्न प्रदर्शन और इस्तेमाल करके पूरी दुनिया पर आतंक का राज्य कायम करना, जिसमें साम्राज्यवादी समूह के भीतर उसके विरोधी-फ़्रांस, जर्मनी और रूस तथा इच्छुक सहयोगी-ब्रिटेन, इटली इत्यादि भी आते हैं।

अमरीका के ये साम्राज्यवादी मन्सूबे अब इराकी रेगिस्तानों में दफ्न हो चुके हैं। सभी तथ्य इस बात के स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि अमरीका इराक युद्ध हार चुका है और वहाँ से भागने का कोई ‘‘सम्मानजनक’’ तरीका खोज रहा है।

1971 में हो ची मिन्ह के नेतृत्व में वियतनाम की जनता ने अमरीकी साम्राज्यवाद को उसकी हैसियत दिखा दी थी, अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सामाजिक आधार को गहरी कुण्ठा से भर दिया था जिसे दुनिया वियतनाम ग्रन्थि (वियतनाम सिण्ड्रोम) के नाम से जानती है। डॉलर और सोने का सम्बन्ध समाप्त कर दिया गया, अमरीकी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी और आतंकित अमरीका को रूसी साम्राज्यवाद से निपटने के लिए चीन से गँठजोड़ बनाने की आवश्यकता पड़ी।

अमरीकी थैलीशाहों को इससे सबक लेना चाहिए था और अपने विश्वविजय के मन्सूबों पर लगाम लगानी चाहिए थी। लेकिन यह कहावत बिलकुल सही है कि सभी प्रतिक्रियावादी एक ही जैसे होते हैं- वे पत्थर उठाकर अपने हाथ-पाँव तोड़ लेते हैं और ऐसा तब तक करते रहते हैं जब तक उनकी मौत न हो जाए।

अमरीकी साम्राज्यवादी, अपराधी बुश-गिरोह ने इराक युद्ध में छोटे और क्षेत्रीय पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले नाभिकीय हथियारों को छोड़कर सभी आधुनिकतम इलेक्ट्रानिक हथियारों का इस्तेमाल किया है। अपने जन्म से लेकर आज तक अमरीकी साम्राज्यवाद वियतनाम, इण्डोनेशिया और लातिन अमरीका के अनेक देशों में अपनी क्रूरता और बर्बरता को दोहराता रहा है। इराक युद्ध के दौरान अमरीका द्वारा किये गये नरसंहार ने माइलाई और हिरोशिमा जैसे नरसंहारों को भी पीछे छोड़ दिया। इस युद्ध में भी वह लगभग 1,854 अरब डॉलर’ झोंक चुका है जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का कई गुना है। वियतनाम में जहाँ हजारों की संख्या में सैनिक मारे गये, दसियों हजार विकलांग हो गये और हजारों की संख्या में मानसिक रोगों के शिकार हुए वहीं इराक के लाखों लोग-जिनमें औरतें, बच्चे, बूढ़े और बीमार भी शामिल हैं, अमरीकी सेना द्वारा किये गये नरसंहार के शिकार हुए हैं। जब भी सम्भव होगा विश्व की जनता बुश-गिरोह के युद्ध अपराधियों को न्यायालय में घसीट लायेगी और उन्हें सजा देगी।

इराक युद्ध की अमरीकी योजना और आक्रमण का विरोध साम्राज्यवादी समूह के भीतर प्रारम्भ से ही होने लगा था। रूस, फ़्रांस, जर्मनी सहित बहुत से देश इसके विरोध में रहे और अन्त तक उसके साथ शामिल नहीं हुए। यह एक सर्वविदित सच्चाई है कि डाकू गिरोह की एकता लूट के माल के बँटवारे को लेकर हमेशा भंग होती रही है। तीसरी दुनिया के बहुलांश देश भी इसके विरोध में रहे। अरब देशों में बहुतों ने मुखर और कुछ ने मौन विरोध किया। अमरीकी जनता ने युद्ध के विरोध में विशाल प्रदर्शन किये। विश्व भर की जनता ने युद्ध का विरोध किया।

बुश-गिरोह और उसके वफादार ताबेदार ब्लेयर ने इस युद्ध के दौरान छल-प्रपंच और झूठ के आधुनिक विश्व के सारे रिकार्ड तोड़ डाले, पूँजीवादी लोकतन्त्र के रहे-सहे स्वस्थ तत्वों को भी दफ्न कर दिया और इन्होंने अपने को ग्रैबियल गार्सिया मार्क्वेज के उपन्यास ‘‘एकान्त के सौ वर्ष’’ की अन्तिम पीढ़ी के सुअर की दुम वाले गन्दे जुड़वा बच्चे साबित किया।

इराक में अमरीका की शर्मनाक पराजय सबसे पहले तो इराक की जनता की जीत है। साथ ही, यह अमरीका की जनता और विश्व की सभी मेहनतकश जनता की जीत है।

दो शब्द भारत सरकार के बारे में।

वाजपेयी-आडवाणी की सरकार ने अमरीका के सामने बार-बार घुटने टेके और इराक में सैनिक भेजने की उसकी फरमाइश पूरी करने के मन्सूबे बनाये। लेकिन भारतीय जनता के प्रबल बहुमत के सामने वे ऐसा नहीं कर सके।

सोनिया-मनमोहन सरकार ने भी सैनिक भेजने का कई बार मन बनाया लेकिन जनता के प्रबल विरोध के भय से वे ऐसा नहीं कर सके।

भारत के शासक वर्गों की अमरीकापरस्ती अगर इसी तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि अपने क्षुद्र वर्गीय और तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति तथा अमरीकी साम्राज्यवाद के विश्व को अपने प्रभुत्व में लाने के मन्सूबों को पूरा करने के लिए वे भारतीय सिपाहियों को भेजें। और इसतरह हम उपनिवेशवाद के दौर से जारी उस गुलामी की प्रथा को आज भी ढोते रहेंगे जिसमें भारतीय सिपाही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हित में तोप का चारा बनने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाया करते थे और भारत कलंकित हुआ करता था। लेकिन भारत की जनता का प्रबल विरोध ऐसा नहीं होने देगा। भारतीय शासक वर्ग के क्षेत्रीय चौधरी बनने और अमरीका के विश्व का चौधरी बनने के मन्सूबे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे।

यह सच है कि सद्दाम हुसैन शियाओं और कुर्दों का हत्यारा और दमनकारी था लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि सी.आई.ए. ने इराक के कम्युनिस्टों, समाजवादियों और प्रगतिशील लोगों की हत्या करवाने के लिए सद्दाम को खड़ा किया था। और यह भी सच है कि सद्दाम लम्बे समय तक अमरीकापरस्ती करता रहा। और यह भी सच है कि ईरान के साथ 10 सालों तक चला युद्ध अमरीका की शह पर सद्दाम द्वारा चलाया गया। इस सद्दाम से अमरीकियों को कोई शिकायत नहीं थी। उनकी शिकायत उस सद्दाम से बनी जिसने उनके प्रति पूर्णतः वफादार कुवैत पर आक्रमण कर दिया और जो तेल का व्यापार डॉलर के बजाय यूरो, येन और युआन में करने के बारे में सोचने लगा।

यहाँ हम अमरीका के एक पूर्व विदेशमन्त्री जेम्स बेकर और भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल के बीच हुए वार्तालाप की दो पंक्तियों को उद्धृत करना चाहते हैं:
जेम्स बेकर: ‘‘यह शैतान तेल पर बैठा हुआ है और हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।’’
इन्द्रकुमार गुजराल: ‘‘भारत की खुशकिस्मती है कि हमारे पास तेल नहीं है।’’

यह बिल्कुल सच है, बल्कि सच से भी ज्यादा है कि पूँजीवादियों और साम्राज्यवादियों की नैतिकता, उनका धर्म, उनकी अन्तरात्मा, उनका विवेक, मानवाधिकार, लोकतन्त्र, आजादी, प्रगतिशीलता, इत्यादि-इत्यादि, सब कुछ उनके क्षुद्र स्वार्थों से संचालित होता है। और यह स्वार्थ है उनकी पूँजी का स्वार्थ, पूँजी की बढ़ोत्तरी और उस पर अपना आधिपत्य और एकाधिकार।

सद्दाम जो भी था, एक इराकी था। इराक की जनता-शिया, कुर्द और अन्य मेहनतकश जनता उससे संघर्ष कर रही थी। देर-सबेर वह अपने अधिकार और आजादी हासिल करती। इराक युद्ध के बाद इराकी जनता ने यह साबित कर दिया है कि वह क्रूर, खूँखार और खून से भरे मुँह और नथुने वाले साम्राज्यवादी भेड़ियों को सद्दाम की जगह किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकती। लेकिन क्या साम्राज्यवादी कभी इस बात को समझ सकेंगे।

अफगानिस्तान के तालिबान सिरफिरे, बेवकूफ, जुनूनी और पुनरुत्थानवादी थे लेकिन फिर भी अफगानी थे। उनको सत्ता में पहुँचाने का सबसे बड़ा श्रेय अमरीकी थैलीशाहों को जाता है। लादेन और उमर को भी इन्होंने ही पैदा किया है। जब वे उनकी बात अनसुनी करने लगे और इनके खिलाफ बोलने लगे तो अमरीका को उनमें सभी बुराइयाँ दिखने लगीं। तालिबान जब तक रूसी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते रहे तब तक अमरीका की नजर में वे ठीक थे। जब तक वे मध्य एशिया के ऊर्जा स्रोतों पर कब्जा जमाने में उनके शतरंज के मोहरे बने रहे, तब तक वे ठीक थे। ऐसा नहीं होते ही वे सारे दुर्गुणों से भर गये।

यही है साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की नैतिकता। यही है उसकी प्रगतिशीलता। यही है मानवाधिकार का उसका दम्भ। यही है उसका लोकतन्त्र।

अफगानिस्तान में उसकी कठपुतली हामिद करजई, नाटो के सिपाहियों से घिरा बन्दी का जीवन बिता रहा है। विदेशी सरकारों का कोई प्रतिनिधि काबुल में रात बिताने को तैयार नहीं है। लेकिन हमारे ‘‘सूरमा’’ प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह वहाँ रात भर रह आये हैं। भारत और पाकिस्तान के आपसी झगड़ों ने इन्हें अन्धा कर दिया है। वे यह भी नहीं समझते कि अफगानिस्तान हमेशा अफगानियों का रहेगा, कभी भी अमरीका या उसके चमचों का नहीं हो सकता। आधी सदी भी नहीं बीती कि इतिहास का यह सच भारत के रहनुमा भूल गये हैं।

इराक में अमरीकी पराजय एक पूर्व-लिखित दस्तावेज है। यह इसके पहले वियतनाम में लिखा जा चुका था। साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष करती एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका की जनता ने इसे रोज, बार-बार लिखा है।

मानव चेतना के इस युग में उपनिवेशों का निर्माण सम्भव नहीं है। यह धारा कि देश आजादी चाहते हैं, बहुत मजबूत है लेकिन इतिहास को आगे ले जाने में इसकी भूमिका कमोबेश पूरी हो चुकी है। जनता की सही मुक्ति और उसकी समस्याओं का समाधान एक समग्र क्रान्ति में है, एक समाजवादी क्रान्ति में है और यही आज के विश्व की उदीयमान धारा है। इसकी शक्ति निरन्तर बढ़ती जायेगी।

यह सच है कि इतिहास का रास्ता बहुत सुगम नहीं होता। लेकिन इतिहास इराकी जनता के इस बहादुराना कारनामे को हमेशा दोहरायेगा और दुनिया की जनता इसे याद करेगी।

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दिगम्बर

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

आओ! बहनो सब एक हो जायें ...


एकता!              संघर्ष!                     मुक्ति!
आओ!
            बहनो
                          सब एक हो जायें ...
बहनो,

कल तक हममें से अधिकतर औरतों के लिए पढ़ना-लिखना एक सपना-भर था। आज जब तुम इस पर्चे को पढ़ पा रही हो तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब भी बहुत सारी औरतों के लिए यह आसान नहीं है। पढ़ने-लिखने, वोट डालने और जीविकोपार्जन जैसे हक, बहुत ही कठोर संघर्षों के बाद मिले हैं। इसके लिए कई बहनों ने बेहद दुख और अपमान झेला है। उन्हीं के प्रयासों की वजह से आज हमारी हालत पहले से बेहतर है। आज हम-तुम आपस में बैठकर बात कर सकते हैं। सिर्फ सामान्य घरेलू चीजों के बारे में ही नहीं बल्कि अपने अधिकारों के बारे में भी।

यह सच है कि आज हमें पहले से ज्यादा अधिकार मिले हैं। यहाँ तक कि हमारे देश के संविधान के मुताबिक स्त्री-पुरूष समान हैं। लेकिन लिख देने या कह देने से समाज नहीं बदलता। बिना समाज बदले, उसकी मानसिकता बदले, स्त्री-पुरूष समान नहीं हो सकते। इसी कारण संविधान से समाज की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। सच्चाई क्या है यह तो रोज-ब-रोज की जिन्दगी में देखा जा सकता है। आज भी मुश्किल से कुछ ही लड़कियाँ पढ़ पाती हैं लेकिन वे कितना पढ़ेंगी यह उन पर निर्भर नहीं करता। ज्यादातर के मन में यही भय समाया रहता है कि जाने कब उनकी पढ़ाई छुड़वा दी जाये।  आज भी शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला उनकी मर्जी के बिना या अक्सर ही उनकी मर्जी के खिलाफ होता है। एक लड़की की शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा इसमें मानी जाती है कि वह लड़के वालों को पसन्द आ जाये। दहेज को लेकर मोल-तोल चलता है। लड़की को देखने-दिखाने रिजेक्ट करने का अपमानजनक नाटक होता है, मानो जिसे दिखाया जा रहा है वह कोई सामान है जिसे लेना या न लेना ग्राहक की मर्जी पर है। शादी की इस पूरी प्रक्रिया में लड़की की गुणवत्ता, उसके साथ आया दहेज है। हाँ, अगर लड़की अपने साथ बाइक, कार नहीं लायी तो उसके जीवन की खैर नहीं। रोज-रोज के ताने, अपमान से तंग आकर यदि वह आत्महत्या नहीं कर लेती तो उसकी हत्या कर दी जाती है। तुम ही सोचो एक समूचे इन्सान की कीमत बाइक, कार जैसी निर्जीव चीजों से भी कम है। बड़े-बड़े मिसाइल और बम बनाने वाले इस देश में हमारी सुरक्षा की क्या हालत है हम अच्छी तरह जानते हैं। सरेआम कोई बलात्कार की धमकी दे सकता है। पैसे और सत्ता के मद में चूर कोई भी किसी भी लड़की को अपनी गाड़ी में खींच सकता है। मासूम बच्ची से लेकर नब्बे साल तक की वृद्धा को अपनी वासना का शिकार बना सकता है और यदि लड़की किसी तरह बच जाये तो यह समाज अपने अपमानजनक तानों से उसे जीने नहीं देता। यदि कानून के पास जाये तो पुलिस, कोर्ट-कचहरी, वकील कदम-कदम पर उसके साथ अपने शब्दों से बलात्कार करते हैं और हाँ अपराधी छुट्टे घूमते रहते हैं। यह है आज की व्यवस्था। यह वही व्यवस्था है जिसमें गरीब, मजबूर, बेसहारा औरतों की बोली लगायी जाती है, जिसमें नन्हीं मासूम बच्चियों की जन्म से तीन दिन बाद ही, खरीद-बिक्री शुरू हो जाती है।

यही है इस ‘सभ्य’ समाज की सच्चाई जिसमें वेश्यावृत्ति तक को खत्म नहीं किया जा सका बल्कि उसे अपना अंग मान लिया गया है। हमारे देश के लोगों में स्त्री के प्रति भेदभाव इतना गहरा धँसा हुआ है कि इसका हर पल हमें खामियाजा भुगतना पड़ता है। कन्या भ्रूण-हत्या इसका क्रूरतम उदाहरण है। ऐसी समाज व्यवस्था में विज्ञान और तकनीक जैसी चीजें भी हम जैसों की विरोधी बना दी जाती हैं। इस तरह के अमानवीय मूल्यों को भुनाकर पैसा कमाया जाता है, अट्टालिकाएँ खड़ी की जाती हैं। हमारे साथ भेदभाव, भ्रूण से शुरू होकर नवजात, मासूम बच्चियों के बेचे जाने, दहेज के लिए जलाये जाने, पत्नी के रूप में अमानवीय यातनाएँ झेलने तथा विधवा होने पर समाज के दोहरेपन के शिकार होने जैसे अनगिनत रूपों में अनवरत जारी रहता है।

ऐसा नहीं है कि तुम इन बातों पर सोचती नहीं या जानती नहीं। बल्कि हम तुम तो किन्हीं रूपों में इसका शिकार भी बनते हैं। लेकिन हमारी आँखों पर संस्कारों की ऐसी पट्टी चढ़ी होती है कि हम इन अत्याचारों को देख भी नहीं पाते।

हम बचपन से ही गुलाम बना दिये जाते हैं, ऐसा गुलाम जो दुख-अपमान झेलना अपनी नियति मान लेता है और उनसे लड़ने के बजाय उन्हें सही साबित करने लगता है। दिनभर घर में खटने और सबकी सेवा-सुश्रुषा करते रहने के बावजूद हमारे काम को काम नहीं समझा जाता। बड़ी आसानी से कह दिया जाता है कि मेरी पत्नी या माँ कुछ नहीं करती। यानी हमारी मेहनत का कोई मोल नहीं। घरेलू काम हमारे स्त्री होने के कर्तव्यों के साथ नत्थी कर दिया गया है। कई बार हम खुद भी घरेलू श्रम जिसपर पूरा घर टिका हुआ है- को कम करके आँकते हैं और इसके बोझ तले धीरे-धीरे हमारी संवेदनाएँ, एक ठण्डी धीमी मौत मर जाती हैं। इसके अलावा एक हिस्सा उन औरतों का भी है जो अपनी जिन्दगी की थोड़ी सी छूट को औरतों की सम्पूर्ण आजादी मान लेती हैं और अपनी हालत से संतुष्ट हो जाती हैं। उन्होंने घरेलू बंधनों को तोड़ दिया है। यह अच्छी बात है लेकिन नौकरी के दौरान मालिक के अपमानजनक व्यवहार और दूसरे पुरुषों के खराब रवैये से वे कैसे आजाद हों? स्त्री-पुरुष के बीच गैर बराबरी को जन्म वाली पुरुषवादी सोच से कैसे लड़ा जाये? जबकि हमें दब्बू और कमजोर बनाने के लिए इन्हीं पुरुषवादी संस्कारों का इस्तेमाल किया जाता है।


लेकिन आज, छोटा ही सही, औरतों का एक हिस्सा ‘औरतपन’ के घेरे को तोड़ रहा है। गाँवों से मीलों पैदल चलकर लड़कियाँ स्कूल जा रही हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद वे दफ्तरों, अस्पतालों, स्कूल-कालेजों में काम कर रही हैं। जिन्दगी के हर हिस्से में, समाज की हर जद्दोजहद में शिरकत करने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इसी के साथ हमारे सामने एक नयी चुनौती आ खड़ी हुई है। वही चुनौती जो कि बहुसंख्यक समाज के सामने है। महँगाई और बेरोजगारी की और इसका कारण है सरकारी नौकरियों में तेजी से की जा रही कटौती। जो बहनें सरकारी संस्थाओं में काम कर रही थीं वे छँटनी का शिकार हो रही हैं। तो दूसरी और फीस बढ़ने के कारण लड़कियाँ पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर हो रही हैं। प्राइवेट संस्थाओं में जितनी तनख्वाह मिलती है उससे अपना पेट तक भरना मुश्किल है। प्राइवेट स्कूलों, अस्पतालों में 10 से 12 घण्टे की मेहनत के बाद महीने की आय मात्र 1500 से 3000 रूपये होती है। इन जगहों पर औरतों को इसलिए नौकरी दी जाती है क्योंकि उनसे कम वेतन पर काम कराया जा सकता है। ये संस्थाएँ हमारे धैर्य तथा सहनशीलता जैसे संस्कारगत गुणों का भरपूर फायदा उठाती हैं। साथ ही कुछ खास तरह की नौकरियों में अनुभवी और परिपक्व औरतों की कम और कम-उम्र तथा आकर्षक लड़कियों की माँग ज्यादा होती है। यानि निजीकरण के चलते हमारी हालत और खराब हो गयी है। पैसे वालों के हाथ में सरकार ने हमारा भविष्य बेच दिया है। आज औरत के श्रम पर ही नहीं बल्कि उसके शरीर और उसकी भावनाओं पर भी मुनाफा कमाने वालों का राज हो गया है। यह स्थिति तो पढ़ी-लिखी बहनों की है। जरा अन्दाजा लगाओ कि असेम्बली-लाइन पर काम (पुर्जे जोड़ने का काम) करती हुई, खेतों, ईंट भट्टों पर हाड़तोड़ मेहनत करती हुई मजदूर बहनों की क्या हालत होगी। ऊपर से यह प्रचार किया जाता है कि आज औरत आजाद हो चुकी है, आखिर अब उसे क्या चाहिए?

जिस समाज में हर पल औरत को उसकी ‘हद’ समझायी जाती हो, जहाँ लड़की को पढ़ाई जारी रखने के लिए मिन्नतें करनी पड़ती हो, जहाँ प्रेम करने पर सूली चढ़ा दिया जाता हो, जहाँ कई औरतों ने घर की दहलीज न पार की हो, जिस जगह औरतें अक्सर खून की कमी से पीड़ित रहती हों। वहाँ यह कहना एक भद्दा मजाक है। जबकि असलियत यह है कि आज भी औरत रूढ़ियों, कु-परम्पराओं और मुनाफे की व्यवस्था के दो पाटों में पिस  रही है।

खैर, तुम सोच रही होगी आखिर इस मकड़जाल से निकलने का रास्ता क्या है? आओ, हम मिलकर सोचें, क्योंकि आज हम-तुम केवल सोच ही नहीं सकते, रास्ता भी निकाल सकते हैं। दोस्त, न लड़ने और चुप रहने की आदत ने हमें दूसरों के हाथ का खिलौना बना दिया है। सबसे पहले तो हमें यह चुप्पी तोड़नी होगी। सही-गलत का फैसला खुद करना होगा। भले ही लाख मुश्किलें हों अपनी पढ़ाई-लिखाई, नौकरी जारी रखनी होगी। अपने पैरों पर खड़े होना हमारी आजादी की पहली शर्त होगी। समाज में व्याप्त पुरूष-प्रधान मानसिकता से लड़ते हुए हमें मुक्ति की लड़ाई में अपनी भागीदारी दर्ज करनी होगी। याद है ना, आज 


हमें जो कुछ भी मिला है हमारी पूर्वज बहनो के संघर्षों का परिणाम है। फिर आज बिना लड़े कैसे कुछ मिल सकता है? हमें तो दोहरी लड़ाई लड़नी होगी क्योंकि एक तरफ पिछड़े मूल्य, पुरानी कुप्रथाएँ और अन्धविश्वास हमारे पाँव की बेड़ियाँ बन रहे हैं तो दूसरी ओर पैसे का निर्मम राज हमारी बोटी-बोटी बेचकर उससे मुनाफा कमाने पर उतारू है। दोस्त, यह मत भूलना कि संघर्ष की राह पर छोटे-से-छोटा योगदान बहुत महत्वपूर्ण होता हैं हमें यह स्थापित करना होगा कि औरत इन्सान है और उसे समाज में जीने, पढ़ने, काम करने का, बराबर का हक मिलना चाहिए। बहनो, अकेले-अकेले लड़ने से आदमी थक-हार जाता है और समूह में कमजोर से कमजोर भी ताकतवर होता है। इसलिए हमें एकजुट होकर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने का प्रयास करना चाहिए। ‘नारी मुक्ति संगठन’ उसी प्रयास की शुरूआत है। आओ, हम अपनी घुटनभरी सिसकियों को नारों मे बदल दें। अपनी शर्म, झिझक, और संकोच को तोड़ फेंके। लड़ाई अब मात्र हमारी-तुम्हारी लड़ाई नहीं है बल्कि सभी संवेदनशील लोगों की लड़ाई है। आओ, हम आज से ही एक मजबूत संगठन के निर्माण के लिए जी जान से जुट जायें।


दरिया की कसम मौजों की कसम ये ताना-बाना बदलेगा
तू खुद को बदल, तू खुद को बदल तब ही तो जमाना बदलेगा।

-नारी मुक्ति संगठन, मई, 2013


बुधवार, 24 अप्रैल 2013

बड़े निगमों का बेहिसाब मुनाफा

मुकेश अम्बानी की कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्री ने वित्तीय बाजीगरी के जरिये हजारों करोड़ का वारा-न्यारा किया। दुनिया भर में इस कंपनी की रेटिंग भारत देश की शाख से भी ऊपर है। सन 2012 में इस कम्पनी ने अपनी इस स्थिति का फायदा उठाते हुए विदेशों से बहुत कम ब्याज दर पर 72266 रुपये कर्ज लिया। भारत में कर्ज पर ब्याज दर अधिक है। बिना किसी उत्पादक कार्रवाई में भाग लिए इसने उसी धन को ऊँचे ब्याज दर पर कर्ज देकर खूब मुनाफ़ा कमाया।

रिलायंस जैसी 54 अन्य कंपनियों ने विदेशों से कम ब्याज दर पर उधार लेकर भारत में निवेश किया। इनकी बढती परिजीविता का आलम यह है कि सन 2007 से 2011 में भूमि और उद्योग जैसी स्थाई सम्पत्ति में निवेश 38.5 प्रतिशत से गिरकर 33 प्रतिशत पर आ गया जबकि कर्ज और वित्तीय उपकरणों में निवेश बढ़कर 40.5 प्रतिशत से 45.7 प्रतिशत तक पहुँच गया। इन कंपनियों के विशेषज्ञ शेयर बाजार के अनुकूल निवेश पर नजरें गड़ाये रहते हैं और गैर कानूनी तरीका भी इस्तेमाल करके मुनाफ़ा कमाने से बाज नहीं आते। क़ानून के चोर दरवाजे से निकलकर भागने में ये कुशल होते हैं। इस तरह ये बड़े निगम अनुत्पादक कार्रवाइयों में निवेश करके मुनाफा कमाते हैं। इन कंपनियों के पास पूँजी की कोई कमी नहीं होती लेकिन उत्पादन में मुनाफे की दर कम होने के कारण ये इसमें निवेश से हमेशा कतराती हैं। यही है कि बड़ी संख्या में रोजगार देने वाले लघु उद्योग पूँजी की कमी से जूझ रहे हैं। 

कुल उत्पादन में गैर संगठित क्षेत्र का योगदान 27 प्रतिशत है जिसमें उत्पादन क्षेत्र के 80 प्रतिशत मजदूर काम करते हैं। इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों को रोजगार देने वाली अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र की अपंजीकृत उत्पादक इकाई में 2004 के 9.7 प्रतिशत निवेश की तुलना में 2011 में निवेश मात्र 3 प्रतिशत रह गया। उत्पादन क्षेत्र संकट ग्रस्त होने के कारण इनमें काम करने वाले मजदूरों की स्थिति खराब चल रही है। किसी देश की धन-सम्पदा में बढ़ोत्तरी का सीधा सम्बन्ध उत्पादन में वृद्धि से है। इससे साफ़ जाहिर है कि बड़े निगमों द्वारा उत्पादन में निवेश घटाने के कारण असली अर्थव्यवस्था संकट का शिकार बनती जा रही है और बेरोजगारी बढ़ रही है क्योंकि वित्तीय क्षेत्र में विकास रोजगारविहीन होता है।

ये बड़े निगम उन अमीर किसानों जैसे हैं जो क्रेडिट कार्ड पर बैंकों से सस्ते दर पर कर्ज लेकर गरीबों को 10 गुनी ऊँची ब्याज दर उठा देते हैं और बिना कुछ किये लोगों का खून चूसकर मुनाफ़ा कमाते हैं।

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

लेख लिखने के लिए 10 आसान चरणों का पालन कीजिये।

1. शोध: लेख लिखने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए अपने विषय पर शोध कीजिये। विषय का विशेषज्ञ बनने के लिए इंटरनेट, शैक्षिक डेटाबेस, और पुस्तकालय का उपयोग करके तथ्यों को जुटाइये और नोट्स लीजिये। उस विषय में खुद को तल्लीन कर लीजिये।


2. विश्लेषण: अब जब आपको विषय का अच्छा ज्ञान हो गया है, लेख के तर्कों का विश्लेषण शुरू कीजिये। विषय को परिभाषित करें, घटना के कारण, सबूत और तर्क को समझिये और पुराने लेखों के तर्कों की कमजोरियों और ताकतों पर ध्यान दीजिये। लेख में पूंजीवादी विचार अन्तर्निहित होगा। उसे एक-एक कर काटने पर हमारे नए तर्क विकसित होंगे। इसके लिए उस विषय पर प्रगतिशील साहित्यकारों के लेख पढ़ने चाहिए।

3. बुद्धि मंथन क्रिया:  लेख को अच्छा बनाने के लिए प्रतिभा के साथ मेंहनत की जरूरत पड़ती है। इसलिए मेंहनत से जी नहीं चुराना चाहिए। खुद से दर्जनों प्रश्न पूछें और उनका जवाब ढूंढें। अपने साथ हमेशा पेन और पेपर रखें और नए-नए आइडिया को नोट करते रहें।

4. थीसिस या पूर्व पक्ष विषय: लेख का सबसे अच्छा विचार उठाइये और उसे एक ठोस तथ्य के साथ नोट कर लीजिये। पूरा लेख उसी के आसपास लिखना चाहिए। आपका थीसिस वह बिंदु होता है जिससे पाठक समझ जाए कि आप उसे कहाँ ले जा रहे हैं। एक संक्षिप्त वाक्य में इसे लिखा जा सकता है। यह व्यावहारिक रूप से असंभव है कि एक स्पष्ट थीसिस के बिना एक अच्छा लेख लिख लिया जाए।

5. रूपरेखा या ढांचा: जैसे एक चित्रकार पेन्सिल से अपने चित्र का पहले ढांचा बनाता है और उसके बाद उसमें रंग भरता है। उसी तरह आप भी लेख की रूपरेखा बना लीजिए। हर पैराग्राफ के लिए पैराग्राफ का सबसे मुख्य वाक्य लिख लीजिये। पैराग्राफ के अन्दर बिन्दुवार वाक्यों को लिखिए। इन वाक्यों को एक तार्किक क्रम में सजा लीजिये। इसके बाद सभी पैराग्राफ को एक तार्किक क्रम में सजा लीजिये। सभी पैराग्राफ संतुलित और व्यवस्थित होने चाहिये।

6. भूमिका या परिचय: अब लेख लिखने के लिए बैठ जाइये। परिचय पाठक का ध्यान खींचने वाला और लेख का नेतृत्व व मुद्दा सेट करने वाला होना चाहिए। शीर्षक और पहला पैराग्राफ पाठक की दृष्टि में लेख का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है क्योंकि पहला पैराग्राफ या तो पाठक को लेख पढने के लिये बाँध लेगा या उसे भगा देगा।  बेशक आपका शिक्षक, जो 'लेखन' सिखाने के लिए आपसे वेतन ले रहा है, आप चाहे जैसा लिखें, वह जरूर पढेगा। लेकिन यह ध्यान रहे कि अन्य पाठक अकेले शीर्षक पर नजर डालकर आपका लेख पढने से इनकार कर सकते हैं।

7. पैराग्राफ: प्रत्येक पैराग्राफ में केवल एक विचार होता है जो लेख का समर्थन करता है। ध्यान केंद्रित करने वाले विषय वाक्य के साथ पैराग्राफ शुरू करना चाहिए। सबूत देकर अपने दावे का समर्थन करना चाहिए। अपने विचारों की स्पष्ट और असरदार शब्दों में व्याख्या करनी चाहिए। अपने पाठक से बात करने वाली शैली में लेख लिखना चाहिए। लेख लिखने के बजाय लेख में बतियाना चाहिए।

8. निष्कर्ष:  पाठक पर निष्कर्ष कभी थोपना नहीं चाहिए। पाठक को खुद निष्कर्ष निकालने दीजिये। विनम्रता से लेख को एक निर्णायक वाक्य के  जरिये समाप्त कर दीजिये। यादगार वाक्य, उद्धरण, दिलचस्प मोड़, तर्क या किसी कार्रवाई के लिए आह्वान के साथ लेख ख़त्म कर दीजिये। 

9. लेख की शैली: लेख की भाषा और विषयवस्तु के अनुसार लेखन शैली प्रभावशाली होनी चाहिए। इसके लिए अपनी नयी शैली विकसित की जा सकती है या हिंदी के अच्छे लेखक जैसे रामचंद्र शुक्ल और  हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेख पढने चहिये, जिससे अच्छी शैली सिखने में मदद मिले।

10. भाषा: भाषा व्याकरण सम्मत होनी चाहिए और उसे अंत में सुधार और संवार लें। वाक्य प्रवाह बना लें, आंतरिक लय पैदा करें, महत्वपूर्ण भाग पर जोर बढ़ा दें, अवांछित शब्द, वाक्य और पैराग्राफ को निकाल दें। कई बार खुद पढ़ें और अपने दोस्तों के बीच पढ़कर अपनी आलोचना को आमंत्रित करें। लेख में अनैतिक विचार, अपशब्द और असंवैधानिक बातों का इस्तेमाल न करें। हिंदी भाषा और साहित्य की गरिमा बनाए रखें।

आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण कदम: अभ्यास, अभ्यास, और अभ्यास।


शनिवार, 13 अप्रैल 2013

बर्बरों का इन्तजार


कवि सी.पी. कवाफी की एक कविता का शीर्षक है- बर्बरों का इन्तजार।

कविता रोम के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक- सामरिक-सम्पूर्ण पतन के काल से सम्बन्धित है। कुलीन रोमनों के पास रोम को आगे ले जाने के लिए कोई कार्यसूची नहीं थी। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। वे किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे कि क्या करें? भोग-विलासिता, अकर्मण्यता, सब कुछ अपनी सीमा पार कर चुके थे। ऐसे ही एक समय का चित्रण करती है यह कविता।
कवि कवाफी लिखता है कि इस संकट के समाधान के लिए रोम के कुलीनतन्त्र के राजनीतिक रहनुमा यूरोप से बर्बरों के आने की मनोकामना कर रहे थे। रोम नगर की बाहरी प्राचीर के मुख्य द्वार पर उनका इन्तजार किया जा रहा था। जब काफी इन्तजार के बाद भी बर्बर नहीं आये तो उनके हाथ-पाँव पफूलने लगे कि अब क्या होगा, वे (बर्बर) नहीं आये।
जब कोई सामाजिक व्यवस्था अपनी ऊर्जा खो चुकी होती है, मृतप्राय हो जाती है और उसे आगे जाने का कोई रास्ता नहीं सूझता तो वह बर्बरों  का इन्तजार करती है।

बर्बर आये
नीचे लिखी कहानी में बर्बर आये और समस्या का समाधान हो गया।
इस कहानी में एक देश के शासक वर्ग और राजनीतिक रहनुमा एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाते हैं कि उन्हें आगे जाने का कोई और रास्ता नहीं सूझता, उनके पास कोई कार्यसूची नहीं रह जाती।
अपने हाथ में सत्ता की बागडोर लेने और समाज का नेतृत्व करने के 38 सालों के भीतर उनके पास कोई कार्यसूची नहीं रह गयी, उनकी समाज-व्यवस्था आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक-सांस्कृतिक- सामरिक पतनशीलता के गर्त तक पहुँच गयी, वे कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो गए और अपने ऊपर उन्हें बिल्कुल भी भरोसा नहीं रह गया।
हालत यहाँ तक बिगड़ चुकी थी कि वे अपने लिए और अपने लोगों के लिए पीने के पानी का भी प्रबन्ध नहीं कर सकते थे, और तो क्या करते। तब वे बर्बरों का इन्तजार करने लगे।
5 साल की प्रतीक्षा के बाद बर्बर आये और उनकी सारी समस्याओं का समाधान करने लगे। वे खुद समस्या के समाधान में उनके सहयोगी और चाकर की भूमिका निभाने लगे।
इस कहानी का खुलासा
15 अगस्त 1947 को भारत के शासक वर्गों और उनकी राजनीतिक पार्टियों ने दूसरे वर्गों को पीछे ढकेलकर राजसत्ता पर अपना नियन्त्रण कायम किया और उस समय की अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिस्थितियों (भारत की विशिष्ट परिस्थितियाँ) के मुताबिक भारत में पूँजीवादी विकास का रास्ता चुना जिसे नेहरू के समाजवाद के नाम से जाना जाता है। यह समाजवाद और कुछ नहीं था, उस समय की परिस्थिति के अनुरूप पूँजीवादी विकास का ही एक रास्ता था।
देश के मुकम्मिल पूँजीवादी विकास के लिए दो महत्वपूर्ण शर्तें थीं। प्रथम, एक सम्पूर्ण और मुकम्मिल भूमि-सुधार। दूसरी, जनता का लोकतन्त्र। हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक थे और एक के बगैर दूसरा सम्भव नहीं था लेकिन मुकम्मिल भूमि-सुधार जनता के लोकतन्त्र के लिए पहली शर्त थी। जनता का लोकतन्त्र उसके बाद ही स्थापित हो सकता था।
इससे जो क्रान्तिकारी ऊर्जा निकलती वह भारतीय समाज के हजारों साल के अस्वस्थकर, अप्रीतिकर और प्रतिगामी दर्शन व जीवन मूल्यों को जलाकर खाक कर देती। तब एक नये लोकतन्त्र का उदय होता। लेकिन भारतीय शासक वर्ग ने ऐसा नहीं किया। ऐसा करने की इनकी मंशा भी नहीं थी।
संविधान सभा के निर्माण से यह जाना जा सकता है। राजा-महाराजाओं, पूँजीपतियों तथा उनके उच्च पदस्थ बुद्धिजीवियों और नौकरशाहों को लेकर जो संविधान सभा बनायी गयी। उसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। वह लोकतन्त्र की वाहक नहीं हो सकती थी।
भूमि-सुधार का काम भी विरोधी वर्गों से समझौता और समर्पण करते हुए आधा-अधूरा ही किया गया। ब्रिटेन के पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाओं को बिना कलम किये ही यहाँ रोप दिया गया। ब्रिटेन में ये संस्थाएँ क्रान्तिकारी काल में एक खास दौर की आवश्यकता से पैदा हुई थीं और उनकी एक सकारात्मक भूमिका भी रही थी। लेकिन 20वीं सदी के प्रारम्भ में ही वहाँ इन संस्थाओं की अप्रासंगिकता सिद्ध हो चुकी थी।
हमारे देश में ये अस्वस्थ और रुग्ण संस्थाएँ लोकतन्त्र की वाहक नहीं बल्कि उसमें बाधक बन गयीं। भारत के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे पर जिन भी संस्थाओं का निर्माण हुआ, चाहे वे कृषि में सुधार के लिए कायम की गयी नाना प्रकार की सहकारी संस्थाएँ (को-आपरेटिव) हों, राजनीतिक संस्थाएँ हों, विश्वविद्यालय और तकनीकी शिक्षा संस्थान हों, सांस्कृतिक संस्थाएँ हों या मूलाधार और अधिरचना की कोई अन्य संस्था- वे सभी स्वस्थ और मुकम्मिल पूँजीवादी विकास और लोकतन्त्र में बाधाएँ बनी रहीं।
ये संस्थाएँ थोड़े से लोगों-शासक वर्गों और उनके सामाजिक आधारों के निहित स्वार्थों की वाहक बन गयीं जो कुल आबादी में बमुश्किल 10-15% थे। जो भी विकास हुआ, वह 25-30% लोगों तक सिमटकर रह गया, उन्हीं को इसका फायदा मिला।
इस व्यवस्था में संकट के लक्षण 1952 से ही दिखाई देने लगे थे। 1958-59 आते-आते शासक वर्गों की योजनाओं की असफलता सामने आने लगी। ’60 के दशक के मध्य तक आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामरिक सभी क्षेत्रों में चौतरफा संकट शुरू हो गया।
पुराने रास्ते पर चलते हुए इस संकट का समाधान नहीं हो सकता था। इसके लिए क्रान्तिकारी समाधान की जरूरत थी जो वे कर नहीं सकते थे।
भारत का यह शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियाँ क्रान्ति की कोख से नहीं पैदा हुए थे। वे अपने जन्म से ही कायर, रुग्ण, मानसिक विकलांगता के शिकार और क्षुद्र स्वार्थों से ग्रस्त थे। उन्होंने बेरहमी से जनता को लूटा-पाटा और रोम के कुलीनों की तरह भोग और विलासितापूर्ण जीवन बिताने लगे।
लेकिन 1985 तक आते-आते उनका विकास अवरुद्ध हो गया, उन्हें आगे जाने का कोई रास्ता नहीं सूझा, वे किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गए, उनका आत्मविश्वास जाता रहा और हाथ-पाँव पफूल गये- तब इसके समाधान के लिए बर्बरों  को बुलाना ही इन्हें एकमात्र रास्ता लगा।

और बर्बर आये
दो शब्द इन बर्बरों  के बारे में।
भारत की जनता के लिए आज के इन बर्बरों  को जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि यहाँ के लोग उनके पुरखों को अच्छी तरह जानते हैं।
अपने पुरखों की तुलना में बर्बर ज्यादा क्रूर, ज्यादा धूर्त, झूठ-छल और प्रपंच में ज्यादा होशियार और हर घृणित कार्रवाई में उनको मात देने वाले हैं।
इनके झण्डे पर लिखा हैः
‘‘सब कुछ लाभ के लिए, सब कुछ पूँजी की वृद्धि के लिए,
सब कुछ बाजार के लिए और सब कुछ बाजारमय।’’
इनका कोई धर्म नहीं, कोई ईमान नहीं, अपना कोई विवेक नहीं।
अपनी पूँजी बढ़ाने और मुनाफा कमाने के लिए क्रूरतम और जघन्यतम अपराधों को अन्जाम देने से भी वे कभी नहीं हिचकते। पिछले 400 सालों का तीसरी दुनिया के देशों का इतिहास इनके नृशंसतापूर्ण अपराधों के खून के छींटों से भरा पड़ा है।
इनमें से एक अपराधी वारेन एण्डरसन को हिन्दुस्तान अभी भूला नहीं है। भोपाल के आस-पास आज भी लोगों की चीख और आहें सुनायी देती हैं। उस अपराधी को भारत सरकार ने अपने विशेष विमान से दिल्ली बुलाकर अमरीका भेजा था। अमरीका से लेकर भारत तक समूची न्याय प्रणाली और प्रशासन ने उसकी मदद की थी।
इन साम्राज्यवादी बर्बरों को आये अभी थोड़े ही दिन हुए हैं कि नोएडा, ओखला, गुड़गाँव, कलिंग नगर और ऐसी बहुत सारी जगहों पर लोगों पर लाठी-गोलियाँ बरसायी जाने लगी हैं ताकि बर्बरों का मुनाफा बढ़ाया जा सके, उनकी पूँजी में वृद्धि की जा सके और उनके उच्छिष्ट भोजन से यहाँ के शासक वर्ग और उसके राजनीतिक रहनुमाओं का पेट भर सके।
वाशिंगटन, टोकियो, बोन, बर्लिन, लन्दन, पेरिस... सभी जगहों से आने वाले बर्बरों का एक ही उद्देश्य है- ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाओ, ज्यादा से ज्यादा लूटो, अपनी पूँजी बढ़ाओ। सबके झण्डे पर एक ही नारा है। हालाँकि कौन कितना लूटे इसको लेकर इनमें झगड़े जरूर हैं।
भारत का शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियाँ जनता को समझाती हैं- ये हमारे लिए सड़कें बनायेंगे, कारें बनायेंगे, कपड़ा-जूता-छाता, सब कुछ बनायेंगे, अच्छी पैकिंग में सुस्वादु और स्वास्थ्यकर खाना खिलायेंगे, हमें अच्छी दवाएँ देंगे, स्वच्छ हवा और साफ पानी पिलायेंगे।
अलग-अलग रंगों वाले राजनीतिक रहनुमा भारतीय जनता को यह समझाने में लगे हैं कि हम सड़कें नहीं बना सकते, कारखानों में उत्पादन नहीं कर सकते, यहाँ तक कि हम अपने पीने के लिए साफ पानी का भी इन्तजाम नहीं कर सकते। हम कुछ भी नहीं कर सकते। सब कुछ बर्बर ही करेंगे।
हमारे प्रधानमन्त्री ने ब्रिटेन में पी.एच.डी. की मानद उपाधि ग्रहण करते समय भाषण में कहा कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने हमें अच्छा शासन करना सिखाया, हम तो कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए ये कृतज्ञ राजनीतिक पार्टियाँ उनकी लूट, मुनापफे और पूँजी की वृद्धि को अबाध जारी रखने के लिए उनके सिखाये गये तरीके से भारतीय जनता पर शासन करेंगी।
शासक वर्गों की राजनीतिक पार्टियों के छोटे-बड़े नेता, उनके अखबार, इलेक्ट्रानिक प्रचार माध्यम, उनके समूचे कार्यक्रम बर्बरों की प्रशंसा में गीत गाते रहते हैं, लोरी सुनाते रहते हैं ताकि भारतीय जनता उनको चुपचाप स्वीकार कर ले।
उनका कहना है कि ये बर्बर जितना भारतीय जनता का शोषण करेंगे, जितना ज्यादा हमें लूटेंगे, उतना ही देश तरक्की करेगा। हमें सिर झुकाकर उनकी गुलामी स्वीकार कर लेनी चाहिए, उन्हें लूटने देना चाहिए और ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिससे वे यहाँ से जाने के बारे में सोचें, वरना हम क्या करेंगे?
तरह-तरह के सि(ान्तों की रचना की जा रही है, नयी मनु-स्मृत्तियाँ गढ़ी जा रही हैं, सोने और चाँदी के वर्क लगाकर उन्हें जनता के सामने परोसा जा रहा है। लेकिन जीवन उतना सीधा और सपाट नहीं होता, जीवन की गति बहुत ही विचित्र और विडम्बनापूर्ण होती है।
विख्यात जर्मन कवि गेटे के प्रसिद्ध काव्य नाटक फाउस्ट में एक चरित्र मेफिस्टोफिलिस कहता हैः
‘‘मेरे मित्र सिद्धान्त भूरा और बदरंग होता है जबकि सदाबहार है जीवन का चिरन्तन वृक्ष।’’
भारत के लोगों को उपनिवेशवाद का 300 सालों का त्रासद अनुभव है, 1990 से 2006 तक नये आर्थिक उपनिवेशवाद का 15 सालों का अनुभव भी उनके पास है।
असली या नकली कोई भी सिद्धान्त अगर जीवन के यथार्थ से टकराते हैं तो जिन्दगी उन्हें कूड़ेदान में डाल देती है।
भारत की जनता भी यही करेगी।

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देश-विदेश-१ 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

जहाँ नारी की पूजा होती है...



हमारे देश में अल्ट्रासाउण्ड परीक्षण करवाकर हर साल 5 लाख बच्चियाँ माँ के गर्भ में ही मार दी जाती हैं। पिछले 20 वर्षों के दौरान देश भर में कम से कम एक करोड़ कन्याभ्रूण हत्याएँ की गयी।

देश के 11 लाख परिवारों के बारे में 1998 में की गयी जाँच पड़ताल और शोध से यह दिल दहला देने वाली सच्चाई सामने आयी। लांसेट जर्नल में छपे इस शोध में बताया गया है कि कन्याभ्रूण हत्या करवाने वालों में सबसे आगे हैं हमारे देश के ‘‘शिक्षित’’ और ‘‘सम्पन्न’’ लोग। अगर पहली सन्तान लड़की हुई तो लड़के की चाह में दूसरी और तीसरी बार कन्याभ्रूण हत्या की सम्भावना और भी अधिक होती है।

यह है औरत को देवी मानने वाले समाज का विद्रूप चेहरा! शोध के नतीजे भारतीय समाज के पाखण्ड का पर्दाफाश कर देते हैं। अजन्मी कन्याओं की लाशों के इस ढेर पर देवियों के ‘मन्दिर’ खड़े करने और ‘देवी जागरण’ आयोजित करने में हमारे समाज को कोई शर्म महसूस नहीं होती। भारत की महान सभ्यता और संस्कृति के गीत गाने वाले शिक्षित मध्यवर्ग के लोग ही निर्द्वन्द्व भाव से यह काम कर रहे हैं।

व्यक्तिगत सम्पत्ति की इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह तय है कि माँ-बाप की सम्पत्ति का वारिस बेटा ही हो सकता है। धार्मिक कर्मकाण्ड के मुताबिक बेटे के द्वारा मुखाग्नि देने से ही माँ-बाप को मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए इस समाज को सिर्फ लड़के की चाहत है। लड़की अनिच्छित गर्भ है।

इस स्वार्थ ने हमारे समाज को अन्धा, क्रूर और बर्बर बना दिया है। इसी घृणित मानसिकता को मुनाफे में बदलने के लिए पिछले 20 सालों में भ्रूण परीक्षण करने वाले क्लीनिक हर छोटे-बड़े शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। हालाँकि जन्म के पहले लिंग-परीक्षण कानूनन जुर्म है फिर भी यह आपराधिक कुकर्म धड़ल्ले से चल रहा है। इसी नृशंसता के कारण लिंग-अनुपात में कमी आ रही है तथा देश के कई इलाकों में शादी की उम्र पार कर चुके कुँवारे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लाखों परिवारों के सामने वंश-वृक्ष सूख जाने की नौबत आ गयी है।

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि औरत को देवी मानने का ढोंग-पाखण्ड छोड़कर यह समाज एक इन्सान के रूप में उसकी अस्मिता और अस्तित्व को स्वीकार कर ले? 

-देश-विदेश १

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

लेखन कार्य के बारे में


हर व्यक्ति को अपने विचारों और मनोभावों को अभिव्यक्त करने की जरुरत पड़ती है, चाहे कोई भी देश-काल-परिस्थिति हो. अभिव्यक्ति के प्रमुख रूप हैं-- बोलकर, लिखकर और इशारों से. अभिव्यक्ति का लिखित रूप सबसे सटीक और उन्नत माध्यम है. इसलिए शुद्ध, सटीक और प्रभावशाली लेखन कला को सीखना एक जरुरी काम है.
लेखन कार्य के तीन चरण होते है – लेखन पूर्व के कार्य, लेखन कार्य, और पुनर्लेखन.
लेखन पूर्व के कार्य
लेखन-पूर्व के कार्य लिखने की तैयारी से सम्बंधित होते हैं. इसके बिना अच्छा लेखन संभव नही होता. लिखने से पहले कुछ बातें सुनिश्चित कर लेना जरूरी होता है –
(१)    लिखने का मकसद यानी दूरगामी उद्देश्य
(२)  लेख का फौरी उद्देश्य
(३)  पाठक वर्ग
(४)  तथ्य संग्रह
लिखने का दूरगामी उद्देश्य हमारे फौरी उद्देश्य को निर्धारित करने में मदद पहुँचाता है. दूरगामी उद्देश्य का एक उदाहरण – किसी फैक्ट्री – विशेष में पूंजीपति मजदूरों के श्रम का शोषण करता है और उसका चरित्र अमानवीय है, यह बात बताना.
पाठक वर्ग तैयार कर लेने से हम उस वर्ग की जरूरतों के अनुसार अपनी बात कहते हैं और उस वर्ग के अनुसार भाषा-शैली का चयन करते हैं, बिम्ब-प्रतीक चुनते हैं और उसे निष्कर्ष तक पहुँचाते हैं.
तथ्य से सत्य का निगमन वैज्ञानिक पद्धति है, अतः कोई भी निष्कर्ष निकलने के पहले हमें तथ्य संग्रह करना चाहिए. तथ्य संग्रह का अलग-अलग तरीका हो सकता है जो आवश्यकतानुसार बदलता है. जैसे- तथ्यों के लिए हम खुद ही प्रत्यश जाँच-पड़ताल कर सकते हैं, पत्र-पत्रिकाओं पर निर्भर हो सकते हैं या इंटरनेट की मदद ले सकते हैं या पुस्तकालयों से मदद ले सकते हैं. तथ्य संग्रह में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि निम्नांकित प्रश्नों का उत्तर अवश्य मिले – क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ, किसने. उदाहरण के लिए इस कथन को लें – गुडगाँव के मजदूरों ने 1 मई 2010 को मजदुर दिवस मनाने के लिए सभाएँ की. इस कथन में उपयुर्क्त सभी छ प्रश्नों का उत्तर है. तथ्य संग्रह करते समय हमें इनके बारे में गहराई से जानने का प्रयास करना चाहिए.
विचार-विमर्श द्वारा विषय-वस्तु का निर्धारण कर लेना लेखन-पूर्व कार्य का आवश्यक अंग है. लेखक को लेख सम्बन्धी योजना बना लेनी चाहिए और यह भी तय कर लेना चाहिए कि संग्रह किये गए तथ्यों में से हमें क्या-क्या प्रयोग करना है. लेखन कार्य शुरू करने से पहले लेख की रुपरेखा बना लेना जरुरी होता है. साथ ही आपसी विचार-विमर्श द्वारा उस रूपरेखा में आवश्यक सुधार कर के उसे बेहतर बना लेना भी जरुरी होता है.
लेखन-पूर्व के चरण में लेखक नए विचार और तर्क से परिचित हो जाता है. लेकिन अभी भी ये विचार और तर्क उसकी अपनी सोच-समझ में रचा-बसा और उसका अंग नहीं बने होते हैं. अतः बार-बार प्रयास करके उन विचारों और तर्कों की स्पष्ट समझ हासिल कर लेना जरुरी होता है. जितनी स्पष्ट समझ होगी उतनी ही स्पष्ट अभिव्यक्ति होगी. इस स्पष्टता को हासिल करने के लिए विषय का महत्व और उसका औचित्य स्पष्ट होना चाहिए. लेखक में सटीकता का आग्रह होना चाहिए. तथ्य लेखक को सटीक होने में मदद पहुँचाते हैं. इसके लिए विभिन्न सन्दर्भ सामग्रियों का अध्यन जरुरी होता है.
लेखन की योजना यदि बड़ी हो तो उसे कुछ भागों में बाँट लेना चाहिए, जैसे-– समस्या को चिह्नित करना, तथ्य संग्रह, पद्धति, परिणाम और विमर्श.
लेखन कार्य
लेखन-पूर्व के कार्य संपन्न हो जाने के बाद लेखन कार्य शुरू करना चाहिए और उद्देश्य को कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए. जो भी लिखें उसमें स्पष्टता होनी चाहिए, उसे संक्षेप में और सटीक रूप से  लिखना चाहिए तथा सरल-सुग्राह्य तर्कों का प्रयोग करना चाहिए. विषयों और तथ्यों को क्रमानुसार लिखना चाहिए तथा विषयवस्तु सुनियोजित और क्रमबद्ध होनी चाहिए. साथ ही नैतिकता के मानदंडों का पालन करते हुए मर्यादाओं और सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए.
अच्छा लेखक यह जानता है कि उसे क्या कहना है और पाठक को लेख के माध्यम से कहाँ ले जाना है. लेकिन पाठक के सामने केवल वही पंक्तियाँ होती हैं जिन्हें वह पढ़ रहा होता है. अतः लेखक को चाहिए कि वह पाठक को अपनी विचार-यात्रा का सहभागी बनाए. पाठक को आसान और सुगम रास्ते से अंतिम लक्ष्य तक ले जाना चाहिए. यानी, उदाहरणों का चुनाव, बिम्बों का चयन आदि पाठक के अनुकूल होना चाहिए तथा जटिल विचारों को सरल, सुगम और सुबोध बनाना चाहिए ताकि पाठक को वह आसानी से समझ में आ जाए. तभी लेखक अपने पाठकों की अपेक्षा पर खरा उतरता है.
लेखन सम्बन्धी योजना तो शुरू में ही बना ली जाती है, लेकिन वह अपरिवर्तनीय नहीं बल्कि आवश्यकतानुसार  उसे परिवर्धित करते रहना चाहिए. बहुत से महत्वपूर्ण विचार दिमाग में लिखते समय भी आ सकते हैं. लेख में इनका समावेश तभी संभव है, जब योजना और रुपरेखा परिवर्धित होती रहे.
लेख कि भाषा-शैली सरल होनी चाहिए. विद्वानों का तो यहाँ तक कहना है कि सरलता के लिए 10वीं कक्षा के बच्चों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा और वाक्य संरचना का प्रयोग करना सबसे सही है.
किसी भी पाठक के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता है कि लेखक कितना अधिक जानता है, बल्कि यह होता है कि वह स्वयं क्या जानना चाहता है. अतः इस सम्बन्ध में लेखक को पाठक के प्रति सचेत रहना चाहिए.
पुनर्लेखन कार्य
लेख तैयार हो जाने के बाद उसके पुनर्लेखन का चरण शुरू होता है. तैयार लेख को बार-बार पढ़ कर उसमें आवश्यक सुधार और परिवर्तन करना चाहिए. यह लेखन कार्य का आवश्यक अंग है और इसे गैरजरूरी नहीं समझना चाहिए. हालाँकि आदर्श और पूर्णता को प्राप्त करना असम्भवप्राय होता है, फिर भी उसके लिए बार-बार प्रयास किया जाना चाहिए. पुनर्लेखन इसमें सहायक होता है.
पुनर्लेखन के समय पुरानी पड़ चुकी और अनावश्यक बातों को हटा देना चाहिए तथा कठिन शब्दों और जटिल वाक्यों की जगह आसान शब्द और सरल वाक्य प्रयोग करने चाहिए. पैराग्राफों को आवश्यकतानुसार छोटा कर देना चाहिए और उन्हें पुनर्संयोजित कर देना चाहिए तथा उलझे हुए और जटिल पैराग्राफों को सरल करके उसकी विषयवस्तु को बिन्दुवार सजा देना चाहिए. दिए गए तर्कों एवं तर्कप्रणाली को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए तथा सूत्रों व् शब्दावलियोंand terminकी व्याख्या कर देनी चाहिए, ताकि पाठक उन्हें आसानी से समझ जाएँ.
लेख में यदि अनावश्यक रूप से आक्रामक और बडबोले शब्दों का प्रयोग हुआ हो तो उन्हें हटा देना चाहिए तथा यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि लेख के माध्यम से किया गया विचार-विनिमय नीरस और उबाऊ न हो.
लेख को अंतिम रूप देने के पहले तथ्यों को फिर से जाँच लेना चाहिए ताकि गलती कि संभावना कम से कम रह जाए.
आवश्यक हो तो अंतिम रूप देने से पहले कुछ संभावित पाठकों को वह लेख पढवा कर उनकी टिप्पणियाँ माँग लें और महत्वपूर्ण टिप्पणियों के अनुरूप लेख में आवश्यक सुधर कर लें.
लेखन प्रक्रिया में कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए. दो पर्यायवाची शब्दों का एक अर्थ एक होते हुए भी उनमें सकारात्मक-नकारात्मक के भाव छिपे होते हैं. अतः दोस्त के लिए सकारात्मक शब्द और दुश्मन के लिए नकारात्मक शब्द चुनने चाहिए. इसी तरह वाक्य संरचना भी ऐसी होनी चाहिए जिसमें आवश्यकतानुसार सम्मान देने या माखौल उड़ाने के भाव हों, फिर भी गरिमा बनी रहे.
लेखक को चाहिए कि अमूर्त विचारों को मूर्त करने के लिए वह ठोस उदहारण तथा बिम्बों और प्रतीकों का सहारा ले. प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी इसमें सहायक होती हैं, क्योंकि उनमें बिम्बों की प्रधानता होती है.
लेखक को अपने निष्कर्ष पाठक पर थोपने नहीं चाहिए. इसके विपरीत प्रयास यह होना चाहिए कि तथ्यों और तर्कों के जरिये पाठक खुद ही उस निष्कर्ष तक पहुँचे. लेखन कला की निपुणता इसी में निहित होती है और इसे बार-बार प्रयास से ही पाया जा सकता है.