सोमवार, 18 जून 2012

आर्थिक महाशक्ति बनाम भूख और गरीबी

हमारे देश के शासक वर्ग, उनके समर्थक अर्थशास्त्री और मीडिया अक्सर यह दावा करते हैं कि भारत 2020 तक आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। इसके लिए वे ऊँची आर्थिक विकास दर, भारी-भरकम विदेशी मुद्रा भण्डार और बढ़ते विदेशी निवेश का बखान करते हैं।
    जनता को आर्थिक महाशक्ति की अफीम पिलानेवाले इन कड़वी सच्चाइयों से मुँह चुराते हैं कि देश की लगभग 84 करोड़ जनता 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है, पिछले 10 वर्षों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। हर साल 5 लाख लोग टी.बी. से मर जाते हैं और 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। जिस देश की 80 फीसदी जतना भूख, बीमारी और कंगाली के नरक में पड़ी हो, उसे महाशक्ति बनाने की बात करने का भला क्या मतलब है? महाशक्ति बनने की यह खुशफहमी उस साजिशाना और शातिराना रिपोर्ट पर आधारित है जिसे सी.आई.ए. की थिंक टैंक राष्ट्रीय गुप्तचर परिषद् ने गढ़ा है। दुनिया के भविष्य की योजनानामक इस रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक भारत और चीन एक बड़ी वैश्विक ताकत के रूप में उभरेंगे। वे दुनिया के सामने चुनौती पेश करेंगे और अमरीका को भी उनकी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसी रिपोर्ट के आधार पर भारतीय मीडिया जनता में सुखबोध जगाने, उन्हें झूठे सपने दिखाने और जन-मानस की सोच को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। वास्तव में ऐसी रिपोर्टों का मकसद असली मुद्दों से जनता का ध्यान हटाना और उसमें भ्रम फैलाना होता है। लेकिन इनका मकसद इससे कहीं ज्यादा होता है। अमरीका ऐसी बातों को क्यों हवा देता है?

शनिवार, 9 जून 2012

किसानों तक सूचनाएँ कैसे पहुँचती है?

प्रयोगशाला से खेत तक सूचनाएँ देने का तन्त्र 1980 तक आते-आते लगभग खत्म-सा हो गया। हरित क्रान्ति के दौरान किसानों को सूचनाएँ देने में इस तन्त्र की एक बड़ी भूमिका रही है। इसके खत्म होने से सबसे बड़ी वजह यह मानी जाती है कि किसान के लिए ऊपर के स्तर पर जो ढांचा तैयार किया जाता था उसी से जुड़ी सूचनाएँ किसानों को दी जाती थीं। इसमें स्थानीय जरूरतों के मुताबिक सूचनाएँ नहीं होती थीं। स्थानीय जरूरतों के मुताबिक कैसी खादें डाली जाएँ, कहाँ से कौन-सा बीज लाया जाए, पानी का उपयोग कैसे किया जाए और किस तरह के कीटनाशक का इस्तेमाल हो इस तरह की सूचनाएँ देना लगभग बन्द हो गया। यह काम सरकारी बाबुओं के जिम्मे था, देश के विभिन्न राज्यों में 531 कृषि विज्ञान केन्द्र तो बने, लेकिन इनसे बाबुओं के परिवार के अलावा किसानों का कोई भला नहीं हुआ। पिछले तीन वर्षों (2003-2006) में इन केन्द्रों पर केन्द्र सरकार ने 487.58 करोड़ खर्च भी किए। सरकारी तन्त्र के विफल होने के कारण किसान खाद, बीज, कीटनाशक और अनाज व्यापारियों पर सूचनाओं के लिए निर्भर रहने लगा और इनके द्वारा सूचनाएँ अपने फायदे को ध्यान में रखकर दी जाती है। आम तौर पर यह स्थिति देखी गई कि किसी गाँव या इलाके में एक किसान इधर-उधर से खेती, पैदावार और अनाज की बिक्री के बारे में जो सुनता था उसी को सही सूचना मानकर ढेर सारे किसान काम चलाते रहे हैं, सरकारी तन्त्र में रेडियों और दूसरे माध्यम भी रस्मी तौर पर ही कार्यक्रम हासिल करने तक सीमित रहे। यदि सूचनाएँ हासिल करने में किसानों का कोई तबका आगे रहा तो वह बड़े किसान, बागवानी, फलों और सब्जी वाले किसान ही रहे हैं।