बुधवार, 24 अगस्त 2011

असंगठित क्षेत्र का फैलाव और गिरती मजदूरी

     अर्थव्यवस्था के स्वस्थ विकास के साथ ही उद्योग और सेवा क्षेत्र में असंगठित क्षेत्रा की जगह संगठित क्षेत्र बढ़ना चाहिए, लेकिन हमारे देश में उल्टी गंगा बह रही है। विकास और सुधार के शोर-शराबे के बीच यहाँ असंगठित क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है। संगठित क्षेत्र के उद्योगपतियों ने कम लागत और अधिक मुनाफे की हवस में अपने ढेर सारे काम असंगठित क्षेत्र से ठेके पर करवाने शुरू किये हैं। साथ ही फैक्ट्री के अंदर स्थायी मजदूरों की जगह ठेका मजदूर या अस्थायी मजदूरों की भर्ती का चलन तेजी से बढ़ा है। संगठित क्षेत्रा के उद्योगों में ऐसे संगठित मजदूरों की संखया कम हुई है जिन्हें रोजगार की सुरक्षा, न्यूनतम मजदूरी, मेडिकल छुट्‌टी, दुर्घटना के लिए मुआवजा, यूनियन बनाने का अधिकार जैसे कानूनी अधिकार प्राप्त हों। देश के कुल श्रमिकों में संगठित क्षेत्र के मजदूरों का अनुपात पहले ही बहुत कम 8.8 प्रतिशत था। 1999 से 2005 के बीच यह अनुपात और भी घटकर 7.67 प्रतिशत ही रह गया ।
      केवल असंगठित क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि संगठित क्षेत्रों में भी मजदूरी में कमी आयी है। वहाँ थोड़े से प्रबंधकों और तकनीकी कर्मचारियों का वेतन बढ़ा है, लेकिन ज्यादातर कामगारों की मजदूरी या तो पूर्ववत है या कम हुई है। असंगठित क्षेत्र के उद्यमों पर राष्ट्रीय आयोग की रिर्पोट २००७ में कहा गया है कि ''हमारे संगठित उद्योग क्षेत्र में मजदूरी का हिस्सा १९८० के दशक के बाद आधा ही रह गया है, जो आज पूरी दुनिया में सबसे कम है।''
      लघु उद्योग, जहाँ मजदूरों की संखया अधिकतम है और अधिकांश काम हाथ से होता है, आज बर्बादी के कगार पर हैं। इन उद्यमों का संरक्षण समाप्त कर दिया गया। बड़े उद्योग उनको निगल रहे हैं, आयातित सस्ते माल का मुकाबला करने में ये अक्षम है और बैंक से सस्ता कर्ज मिलना भी अब लगभग बंद हो गया है। दूसरी तरफ इन उद्योगों में तैयार होने वाले सस्ते और मामूली सामानों के ग्राहक कम आय वाले साधारण लोग है जो आमदनी गिरने के कारण इनका सामान खरीदने में समर्थ नहीं है। इसके बावजूद बढ ती बेरोजगारी के कारण असंगठित क्षेत्र में 1993 के बाद से 6 करोड  नये श्रमिक शामिल हुए हैं।
      असंगठित क्षेत्र के बारे मे गठित राष्ट्रीय आयोग के अनुसार गैर कृषि निजी क्षेत्र के असंगठित और संगठित, दो हिस्सों में से असंगठित क्षेत्र के 87 प्रतिशत मजदूरों ने 50 प्रतिशत उत्पादन किया जबकि संगठित क्षेत्र के 4 प्रतिशत मजदूरों ने 25 प्रतिशत उत्पादन किया। लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की आय इतनी कम है कि उन्हें अर्ध-बेरोजगार कहना ही उचित है।
      बड़े उद्योग के ऊपरी हिस्से और नये तरह के उद्यमों की तकनीकी क्षमता बढ़ा है। थोड़े से श्रमिकों की आमदनी में भी काफी इजाफा हुआ है, लेकिन पूरे श्रमिक वर्ग के आगे इनकी संखया नगण्य ही है।
       हमारे शासकों ने रोजगार की परिभाषा को काफी ढीला करके ''किसी भी आर्थिक गतिविधि में व्यस्त'' कर दिया, चाहे उस गतिविधि से किसी की जीविका चल पाये या नहीं। फिर भी 2004-05 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक 15-65 वर्ष की आयु के दो तिहाई से भी कम लोग ही रोजगारशुदा हैं। ग्रामीण क्षेत्र की 56.5 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र की 43.3 प्रतिशत आबादी स्वरोजगार में लगी है, जो किसी तरह दिन काट रही है। अगर रोजगारोन्मुख विकास होता तो देश में रोजगार और लोगों की आमदनी की स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती।

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