बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक चक्रव्यूह




भारतीय राज्य के साथ मिलकर साम्राज्यवादी जमकर सांस्कृतिक हमला कर रहे हैं. भारत जैसे गरीब देश में अमरीका के बाद  भारत के पास दूसरे नंबर पर टी. वी. चैनल्स हैं. इसका कोई ख़ास मतलब है. अच्छे-खासे लोग इसमें फंसते जा रहे हैं. दो तरह की चीजें परोसी जा रही हैं. एक तो रामायण जैसे ढेरों धारावाहिक रोज दिखाए जा रहे हैं (इसमें महाभारत थोडा भिन्न था, " भारत एक खोज भी",बाकी तो कूड़ा है). (नोट- हमारे यहाँ मिथोलोजी को मिथोलोजी के रूप में नहीं अक्षरश: धार्मिक रूप में लिया जाता है.  धारावाहिक के सामने पूजा होती है. विदेशों का आदमी शिक्षित हैसारी चीजों को जानता हैकहानी के रूप में लेता है.). वे अब भारी पैमाने पर सामान्य लोगों की चेतना कुंद करने के लिए दिखाए जा रहे हैं. यदि इससे लोग बच जाते हैं तो अलिफ़-लैलाचन्द्रकान्ता देखिये-अवास्तविक दुनिया में लोग पहुँच जाते हैं. इसके अलावा उच्छ्रंखल साम्राज्यवादी धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं. नए टी.वी.चैनल्स में यह ज्यादा है.ज्यादातर नंगी तस्वीरें दिखाते हैं-वे हमारी मूलभूत सहज्वृति से खेल रहे हैं. (playing on basic instincts.) फिर माइकल जैक्सनयान्नी भी टी.वी.पर आते हैं. इसमें फंसने वाले लोगों की संख्या भी बहुत है.



यह सब जो हो रहा है हमारे देश में इसके लिए जमीन सबसे अच्छी है. अंधविश्वास-भुखमरी सबसे ज्यादा है. लोग पस्तहिम्मती में जी रहें हैं. असली जिंदगी में कुछ नहीं मिलता तो वे उसे मास फंतासी  (mass fantasy) में पाने की आशा करते हैं. क्योंकि खुद जी नहीं सकते तो दूसरों को देखकर जी सकते हैं. जैसे प्रेम करने के लिए कानी लड़की भी नहीं मिलती. लेकिन सिनेमा में बैठते हैं तो खूबसूरत, करोड़पति की लड़की से गरीब नौजवान को प्रेम करते हुए देखते हैं और खुद को उसकी जगह पर रखकर खुश हो लेते हैं. और जब बीभत्स व कुरूप असली दुनिया से उनका सामना होता है तो उनकी रूह तक काँप जाती है. इसी प्रकार, क्रिकेट, तैराकी - यह देखना एक नकली चीज है. लोगों की भारी संख्या इसमें जीने लगी है जबकि खुद खेल नहीं सकते. (जो खेल लेते हैं उनकी बात अलग है,खेलना अच्छी बात है.) इसके अलावा खेल में विज्ञापनों को देखकर बाजार तैयार करते हैं. सारी चीजों से वंचित होकर लोग टी. वी. से चिपके रहते हैं.

साम्राज्यवादी दानव नौजवानों में उन्माद और पागलपन भर रहे हैं. इसी का नतीजा है कि बिगडैल नौजवान द्वारा मासूम लड़कियों का आये दिन शिकार किया जाना अखबारों की मुख्य खबरों में है. हम बहुत गरीब हैं तो क्या हुआ एक सामान्य जिंदगी तो जी ही सकतें  हैं, ढंग से. इसके बजाय दूसरों को जीते हुए देखना और उससे या तो संतोष कर लेना या उन्माद का शिकार हो जाना मानसिक बीमारी है. 

इतिहास के रास्ते में धर्म जब शुरू हुआ था उस समय आदमी असहाय था, कोई न कोई पराभौतिक चीज (धर्म, ईश्वर) की जरूरत थी जिसके सहारे अपनी कमजोरी के बावजूद जीने कि कोशिश करता. आज भी कुछ वैसा है दूसरी परिस्थिति में. लाखों करोड़ों लोग फंतासी में जीते हैं. It is more or less a sign of sick mentality......ऐसा पुणे विश्वविद्यालय में श्याम बेनेगल ने अपने भाषण में कहा था. ठीक ही कहा था. जैक्सन, यान्नी जो तकनीक-लाईट अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल करते है उसमें आदमी खो जाता है. पर्फोर्मेर की बात ख़त्म हो जाती है,  लोग तकनीकी की चकाचौंध से प्रभावित हो जाते है. यान्नी तो तकनीक के बिना एक घटिया कम्पोजर से ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन बेचने वाली कम्पनियाँ तकनीक (पब्लिसिटी आदि) के आधार पर उसे बेच रहीं है. और लोग स्वस्थ कला की विकल्पहीनता की स्थिति में उसकी तरफ दौड़ रहें.

आज बड़े अखबारों में अनाप-शनाप आ रहा है. उनमें कोई उपयोगी सामग्री नहीं आ रही है. छोटे अखबारों में कुछ स्थानीय समस्याएं तो आती हैं- कहाँ बलात्कार हुआ,कहाँ चीनी नहीं मिल रही है; इन खबरों का फिर भी कोई मतलब है बड़े अखबार आडवाणी-मोदी-अन्ना-मनमोहन के बारे में चटकारे लेकर लिखते हैं. इसी प्रकार, जितने भी टी. वी. चैनल्स आप लगाए दिखाया तो वही जाएगा-कूड़ा. वे ढंग की अच्छी चीजें लाइब्ररी से हटाकर लेखागार (archive)  में डाल चुके है. अच्छे सिनेमा आज कभी-कभार ही फिल्म चैनल्स पर दिखाए जाते हैं. शहरों में १५-२० फिल्म हाल होते हैं लेकिन उनमें फिल्म एक भी देखने लायक नहीं होती, अच्छी फ़िल्में महानगरों में ही इक्का-दुक्का आती हैं और कम लोगों के बीच ही इस प्रकार पहुँच पाती हैं. यह सब करना आज साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी हो गया है. यदि उन्हें आर्थिक बल पर राज करना है और उनकी शोषणकारी व्यवस्था टिकाऊ हो तो उन्हें इन क्षेत्रों को अहमियत देनी होगी. लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर शासन करना लोगों को सीधे गुलाम बनाने के बजाय अच्छा है, यह बहुत दिनों तक चल सकता है. बन्दूक के दम पर शासन का अर्थ होता है कि अब उनके दिन लदने वाले हैं. 

लोगों को एक ख़ास तरह से ढाला जा रहा है ताकि वे एक ख़ास तरह की चीजें ही देखें. एक ख़ास तरह का जानवर बनाकर लोगों को सेट किया जा रहा है. लोगों को एक ख़ास किस्म का उपभोक्ता बनाया जा रहा है. इस चक्रव्यूह को तोडना आज के क्रांतिकारी आन्दोलन के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती है.

सोमवार, 29 अगस्त 2011

आर्थिक गुलामी के 20 वर्ष : कारण और समाधान



पिछले 20 वर्षों के दौरान भारतीय अर्थतंत्र में ढेर सारे बदलाव किये गये। इसने भारतीय समाज और जनजीवन को गहराई से प्रभावित किया। शासक वर्ग इन बदलावों को विकास के नये युग का नाम दे रहे हैं। उनका कहना है कि भारत की आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से भी आगे जा चुकी है और जल्दी ही 10-12 प्रतिशत तक पहुँचने वाली है। शेयर सूचकांक एक समय 21000 तक जा पहुँचा था और आज भी यह 18000 से ऊपर बना हुआ है। विदेशी मुद्रा भण्डार 262 अरब डॉलर हो गया है। हमारे प्रबन्धन संस्थानों से निकले स्नातकों की दुनियाभर में माँग बढ़ रही है। इत्यादि।
    रेडियों, टीवी चैनल, अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ, व्यवस्था-पोषक बुद्धिजीवी-पत्रकार, साम्राज्यवादी देशों की सरकारें, बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रबन्धक, देशी-विदेशी पूँजीपति, नेता, नौकरशाह एक सुर में इस विकास का राग अलाप रहें हैं। इनका मानना है कि भारत 'उभरती हुई अर्थ व्यवस्थाओं' की अगली कतार में है और जल्दी ही यह 'आर्थिक महाशक्ति' बनने वाला है। उनके अनुसार यह चमत्कार 1991 में नयी आर्थिक नीति के लागू होने के साथ शुरू हुए आर्थिक सुधारों की सफलता का परिचायक है।
आर्थिक विकास के ये आँकडे  काफी हद तक सही हैं। इसने देश की एक छोटी सी आबादी को मालामाल किया है। लेकिन यह पूरी भारत की सच्चाई नहीं है। जब हम देश की बड़ी आबादी पर निगाह डालते हैं तो इस चमचमाते विकास की कलई खुलने लगती है। मीडिया के अंधाधुंध प्रचार और आंकड़ों  के मायालोक से बाहर निकलते ही 'सुधार' जैसे मोहक और भ्रामक शब्द के पीछे छिपी क्रूरतम सच्चाइयाँ हमारी आँखों के आगे नाचने लगती हैं।
      इन नीतियों के जरिये हमारे देश के शासकों ने मुट्‌ठी भर लोगों के लिए स्वर्ग का सृजन किया है, जबकि बहुसंखयक आबादी की जिन्दगी को नरक से भी बदतर बना दिया पोस्ट प्रकाशित करेंहै। इस आलेख में देश को आर्थिक गुलामी की ओर ले जाने वाली इन नवउदारवादी नीतियों के दुष्परिणामों पर एक सरसरी निगाह डालते हुए इसके कारणों पर गहराई से विचार किया जायेगा ताकि हम समस्या के सही समाधान की दिशा में आगे बढ  सकें।

विकास का विरोधाभास

      देश की मौजूदा हालात और आम जनता की जिन्दगी पर नजर डालें तो विरोधाभास और विषमता की एक ऐसी तस्वीर दिखायी देती है जो स्तब्धकारी है। जिस समय आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत की ऊँचाई छू रही थी, तब रोजगार केवल 0.17 प्रतिशत की दर से ही बढ़ रहा था। रोजगार चाहने वालों की कतार में नये-नये शामिल देश के 1.8 करोड  लोगों में से ज्यादातर लोगों को हर साल बेरोजगारी के नरक कुण्ड में धकेल दिया गया। जब आईटी सेक्टर में काम करने वालों और बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रबन्धकों की ऊँची वेतन की चर्चा हो रही थी, आईआईएम और आईआईटी डिग्री धारकों की लाखों-करोड़ों में बोली लग रही थी, उसी समय बीए-एमए, एमबीबीएस और बीटेक पास नौजवान 2000-4000 की नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे थे, पुलिस-फौज की भर्ती के दौरान लाठी खा रहे थे, या ट्रेन की छतों से गिर कर मर रहे थे।
      एक तरफ शहरों में मैक्डोनाल्ड, केन्टुकी फ्रायड चिकन और पिज्जा हट जैसे एक से एक विदेशी होटल खुल रहे थे, तो दूसरी ओर सरकार गरीबों के राशन में लगातार कटौती कर रही थी। नतीजा यह की हमारा देश दुनियाभर में भुखमरी के शिकार 84 देशों की सूची में निर्धनतम अफ्रीकी देशों के साथ शामिल था।
      देशी-विदेशी मीडिया का कहना है कि भारतीय परिवारों में विदेशी रेस्तरां में खाना खाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। टीवी चैनलों पर खान-पान के लुभावने कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। स्थूलकाय औरत, मर्द और बच्चे मोटापा कम करने पर हजारों रुपये खर्च कर रहे हैं। दूसरी ओर प्रति व्यक्ति अनाज की खपत कम होती जा रही है और आदमी को जिन्दा रहने के लिए जरूरी मात्रा में भी कैलोरी नहीं मिल पा रही है। सरकारी आकड़ों के मुताबिक 2006 से 2008 के बीच प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन अनाज की औसत आपूर्ति 445 ग्राम से घट कर 436 ग्राम हो गयी। इस औसत आपूर्ति में से गरीब का हिस्सा जाहिर तौर पर काफी कम है जबकि उसकी थाली में पौष्टिक भोजन दुर्लभ है। आज दुनिया के आधे भूखे लोग और सबसे कुपोषित बच्चे भारत में हैं जबकि 90 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ कुपोषण और खून की कमी से ग्रसित हैं।
      फैशन टीवी पर दिन-रात मनमोहक पोशाकों की नुमाइश और बड़े शहरों में फैशन सप्ताह के आयोजन हो रहे हैं जहाँ स्वप्निल पहनावे में सजे-धजे मॉडल मटकते दिखते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति कपडे  की औसत खपत ९ मीटर है जितना ऊपरी तबके के घरों में रूमाल, तौलिया और पोंछे के मद में ही खर्च हो जाता है। दूसरी ओर नंग-धड़ंग  घूमते बच्चे और फटे चीथड़ों में तन ढाँपे करोड़ों लोग इस विकास की असलियत बयान करते दिखते हैं। शहरों-कस्बों में पुराने कपड़ों का बाजार लगता है जहाँ विदेशियों के उतारे हुए कपडे  खरीदना भी सबके वश की बात नहीं है।
      देश में करोड पतियों-अरबपतियों की जमात और उनकी दौलत हर साल बेहिसाब बढ रही है। विलासिता के सामान खरीदने के लिए अमीरों को आसान किस्तों और सस्ती दरों पर उपभोक्ता ऋण देने के लिए बैंकों में होड़ लगी हुई है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्रा की सरकारी उपेक्षा और गहराते संकट के कारण सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा और विकास दर में लगातार कमी आयी है। बैंकों से कर्ज न मिलने के कारण ज्यादातर किसान निजी सूदखोरों के जाल में फँसते गये, फसल चौपट होने या बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण वे बर्बादी के शिकार हुए। पिछले दस वर्षों में देश भर के डेढ लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली।
      एक तरफ नोएडा, ग्रेटर नोएडा और नवी मुम्बई जैसे विलासितापूर्ण शहर बसाने, विशेष आर्थिक क्षेत्रा बनाने, यानी देश के अन्दर ही ऐसे 578 विदेशी इलाके आबाद करने तथा एक्सप्रेस हाइवे बनाने के लिए कौडियों के मोल किसानों से जमीन छीन कर देशी-विदेशी कम्पनियों को सौंपी जा रही है, प्राकृतिक संसाधनों और खनिज सम्पदा की नीलामी करने के लिए पर्यावरण और दूसरे कानूनों की धज्जी उड़ाते हुए आदिवासियों के सैकड़ों गाँव उजाडे  जा रहे हैं, उनकी रोजी-रोटी और सामुदायिक जीवन को रौंदा जा रहा है। दूसरी ओर विस्थापन के खिलाफ या अपनी जमीन के लिए मुआवजा या पुनर्वास की माँग कर रहे आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों का बर्बर दमन किया जा रहा है। ये घटनाएँ उन दिनों की याद दिलाती हैं, जब कच्चे माल पर कब्जा करने के लिए यूरोप के उपनिवेशवादियों ने अमरीकी उपमहाद्वीप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और भारत सहित तमाम देशों के मूल निवासियों पर वहशियाना जुल्म ढाये थे। विडम्बना यह है कि इस बार उपनिवेशवादी कब्जे को अंजाम देने वाले अपने ही देश के सफेदपोश शासक हैं जो देशी-विदेशी पूँजी के एजेण्ट की भूमिका में उतर आये हैं।
      इन आर्थिक सुधारों के चलते जिन गिने-चुने लोगों की आय में बेहिसाब बढोत्तरी हुई, उनके लिए शापिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, हेल्थ क्लब, मसाज पार्लर, विदेशी रेस्तराँ, अपोलो और एस्कोर्ट जैसे अस्पताल, राजसी ठाठ-बाट वाले 'इन्टरनेशनल' और 'ग्लोबल' स्कूल-कॉलेज, वाटर पार्क, गोल्फ क्लब, यानी विलासिता और शानो-शौकत से भरपूर एक स्वर्ग लोक का निर्माण किया गया है। दूसरी ओर असंगठित क्षेत्रा के 80 करोड़ लोग हर रोज 20 रुपये या उससे भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। उनके लिए पहले जो नामचारे के सरकारी स्कूल, अस्पताल, सस्ता राशन, किरासन तेल और दूसरी सुविधाएँ थीं, उन्हें भी सरकार एक-एक कर समाप्त करती जा रही है। सामाजिक सेवाओं का निजीकरण कर के हमारे देश के शासक बदहाली के शिकार लोगों को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं। कल्पना करना कठिन है कि 20 रूपये रोज की आमदनी वाले जिन लोगों के लिए बेलगाम मँहगाई के इस दौर में दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल है, वे अपने बच्चों की पढ़ाई और दवा-इलाज के बारे में भला सोच भी कैसे सकते हैं।
      गगनचुम्बी इमारतों और आलीशान कोठियों के इर्दगिर्द, उनसे गुजरने वाले गन्दे नालों या रेलवे लाइन के किनारे सहज ही नरक से भी बदतर बस्तियाँ आबाद होती और उजड ती रहती हैं। इन झोपड पट्टियों के वाशिंदे स्वर्ग के निवासियों की जिन्दगी का बेहद जरूरी हिस्सा हैं घरेलू नौकर-नौकरानी, धोबी, नाई, माली, बिजली मिस्त्री, दरबान, सफाईकर्मी, ड्राइवर, रिक्शा-टैम्पो चालक, दूध-अखबार-सब्जी विक्रेता और दिन-रात उनकी खिदमत में लगे लोग। दूसरों की जिन्दगी में चमक लाने वाले इन लोगों की अपनी जिन्दगी में अंधेरा ही अंधेरा है। औद्योगिक इलाकों के इर्द-गिर्द आबाद होने वाले श्रमिकों के उपनगर भी इन बस्तियों से थोड़ी ही बेहतर स्थिति में हैं, मसलन नोएडा के साथ निठारी, गाजियाबाद के साथ खोड़ा कालोनी और दिल्ली के साथ लोनी। राजधानी के पास बसी लाखों की आबादी वाली इन बस्तियों की नारकीय स्थिति को नजदीक से देखे बिना इस विकृत और विद्रूप विकास का पूरी तरह जायजा लेना सम्भव नहीं। सरकारी विज्ञापनों और मीडिया में दिखायी जाने वाली लकदक छवियों को देखकर धोखे में आ जाना लाजिमी है।
      ये सभी विरोधभास जिन आर्थिक सुधारों का नतीजा हैं और जिनके नाम पर पिछले 20 वर्षों से हमारे देश के शासक वर्ग जिस बाजारवादी अर्थनीति का अनुसरण कर रहे हैं, वह उनकी मौलिक खोज नहीं है। यह हमारे देश की जरूरतों से पैदा नहीं हुई है। इसकी प्रस्तोता और प्रवर्तक अमरीकी चौधराहट वाली विश्व साम्राज्यवादी शक्तियाँ हैं। नवउदारवादी नीतियाँ विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी साम्राज्यवादपरस्त वित्तीय संस्थाओं द्वारा अमरीकी सरकार की मदद से गढ़ी गयी हैं। 'वाशिंगटन आमसहमति' के तहत इसे विश्वव्यापी बनाने की शुरुआत हुई। तथाकथित वाशिंगटन आमसहमति के पीछे बहुराष्ट्रीय निगमों की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिनका दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव था और अपने अति लाभ को जारी रखने के लिए तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को साम्राज्यवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था के अधीन लाना जरूरी था। विश्व साम्राज्यवाद का चौधरी अमरीका दूसरे महायुद्ध के बाद से ही इन नीतियों को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता था।  1990 की अनुकूल विश्व परिस्थितियों ने उसकी मुराद पूरी कर दी।
       इन साम्राज्यवादी नीतियों को 'ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों' के जरिये दुनियाभर में लागू करवाने का जिम्मा विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष को सौंपा गया। 1980 के दशक में लगभग 70 देशों में इसे लागू किया गया जो इन्हीं संस्थाओं के कर्ज जाल में फँसकर आर्थिक संकट के शिकार हो चुके थे। उनकी रणनीति यही थी पहले किसी देश को कर्ज के जाल में फँसाओ और फिर उसे उबारने के नाम पर नवउदारवादी नीतियों की विषाक्त कड वी दवा पिलाओ। भारत में भी ऐसा ही किया गया।
      1990-1991 में कर्ज और व्यापार घाटा संकट में फँसने के बाद भारत के शासक वर्गों ने भी इस नये आर्थिक धर्मशास्त्रा को अंगीकार कर लिया। 1947 के बाद देश में चली आ रही आर्थिक नीतियों से यह एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव था। हमारे शासकों की भाषा रातों-रात बदल गयी। आत्मनिर्भर विकास की जगह निर्यातोन्मुख औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी-पूँजी और निजी-मुनाफा, नेहरूवादी समाजवाद की जगह बाजारवाद, संक्षेप में साम्राज्यवादी देशों के आगे निर्लज्ज आत्मसमर्पण।
      आगे इन आर्थिक नीतियों के अलग-अलग पक्षों और उनके दुष्परिणामों का जायजा लिया जायेगा।

बजट घाटा कम करना -यानी गरीबों से छीनकर अमीरों को बाँटना

      अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य सुधारने के लिए जो नुस्खा दिया था, उसके साथ एक खास एहतियात भी सुझाया था बजट घाटा कम करने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती। वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता से अपनी बेल्ट कसने की अपील की थी, तो प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने लगभग धमकाते हुए कहा था कि सरकार कोई धर्मशाला नहीं है। यानी आम जनता मुफ्त में सरकार से कुछ भी पाने की उम्मीद न रखे। इस तरह भविष्य की दिशा तभी तय हो गयी थी कि इस किफायत की कीमत किसे चुकानी पड़ेगी। 2004 में राजस्व जिम्मेदारी और बजट प्रबन्धन अधिनियम लागू करके सरकार ने विदेशी पूँजीपतियों को आश्वस्त किया कि वह अपने राजस्व घाटे को 2010 तक शून्य तक लायेगी। इस कानून में यह भी दर्ज है कि सरकार प्राकृतिक आपदा को छोड कर अपनी जरूरतों के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज भी नहीं लेगी।
      बजट घाटा कम करने के लिए सरकार के सामने दो रास्ते थे पहला, पूँजीपतियों और अधिक आमदनी वालों से प्रत्यक्ष कर की वसूली बढ़ाये और सरकारी ढाँचे पर होने वाले खर्चे में कटौती करे। दूसरा रास्ता सार्वजनिक सम्पत्ति, कल कारखाने और प्राकृतिक संसाधन देशी-विदेशी पूँजीपति को बेंच दे। साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी सामाजिक सेवाओं के मद में बजट की राशि कम करे, किसानों की सहायता, सस्ते दर पर कर्ज, ग्रामीण विकास कार्यक्रम और गरीबों, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के लिए राहत योजनाओं पर खर्च कम करे, आम जनता से वसूले जाने वाले अप्रत्यक्ष करों की दर ऊँची करे और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी करे। पहले उपाय का बोझ उन थोड़े से धनी लोगों पर पड़ता जो उसे उठाने में सक्षम हैं जबकि दूसरे उपायों की मार देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को सहनी पडती जो पहले ही तंगहाल है। सरकार ने दूसरा रास्ता चुना। सरकार ने चंद अमीरों से प्रत्यक्षकर वसूलने के बजाय ढेर सारे लोगों पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाया। सरकार के राजस्व सचिव के अनुसार भारत में कॉरपोरेट टैक्स लगभग 20 प्रतिशत है जबकि दूसरे देशों में 30 से 40 प्रतिशत वसूली होती है। वित्त मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक बॉम्बे स्टॉक एक्स्चेंज की 1047 शीर्ष कम्पनियों ने एक वर्ष में 14,040 करोड  का मुनाफा कमाया, लेकिन सरकार को एक भी पैसा टैक्स नहीं दिया। बाद में जब सरकार ने उनके लिए 13 प्रतिशत टैक्स तय किया तो उन कम्पनियों ने उससे भी बचने का रास्ता निकाल लिया। आरबीआई के एक अध्ययन के मुताबिक 1998-1999 में 1248 गैर-वित्तीय कम्पनियों में से एक तिहाई ने एक पैसा भी टैक्स न देने का उपाय खोज निकाला था। सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के मद में लगातार कमी की गयी, वहीं सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और सांसदों-विधायकों के वेतन भत्तों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की गयी। हवाई अड्‌डों, बंदरगाह, अवरचनागत ढाँचे और पुलिस-फौज पर लगातर बजट बढ़ाया गया। एक तरफ गरीबों के ऊपर मँहगाई और करों का बोझ बढ ता गया, तो दूसरी तरफ उनकी वास्तविक मजदूरी और आय में लगातार गिरावट आती गयी। इसी का नतीजा है कि आज देश की तीन चौथाई आबादी हाड तोड  मेहनत के बावजूद कंगाली, भुखमरी, कुपोषण और प्रवंचना में जकड ती जा रही है। बजट में कटौती और मितव्ययिता का सीधा मतलब अमीरों को छूट और गरीबों की लूट है।

निजीकरण - सार्वजनिक सम्पत्ति की कौड़ियों के मोल नीलामी

      अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शर्तों के एक अन्य पहलू पर तेजी से अमल करते हुए भारतीय शासकों ने सार्वजनिक क्षेत्रा के कारखानों, खदानों, गैस और तेल के भण्डारों, बैंक-बीमा कम्पनियों तथा ओएनजीसी, गेल, बीएचइएल, बीएसएनएल जैसे नवरत्न संस्थानों को कौड़ियों के मोल देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया। अपने इस कुकृत्य को उन्होंने विनिवेशीकरण और निजीकरण जैसे आकर्षक नाम दिये। इसके पीछे उनका तर्क था कि घाटे में चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्रा के निगमों के कारण ही राजस्व घाटा बढ ता गया। उनकी बिक्री से बजट घाटा कम होगा, साथ ही उन निगमों को निजी पूँजी की सहायता से लाभदायक भी बनाया जायेगा। लेकिन वास्तव में यह कदम मुनाफे पर चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्रा की संस्थाओं पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की गिद्धदृष्टि का परिणाम था।
       आजादी के बाद जनता की कमाई से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्रा के निगमों को नेहरू ने नये भारत का ''मन्दिर'' और अर्थव्यवस्था की ''नियन्त्राण चौकी'' कहा था। पिछले 20 वर्षों में उनका बंदरबाँट कर दिया गया। प्राकृतिक गैस के 95 प्रतिशत भारतीय कारोबार पर सार्वजनिक क्षेत्रा की कम्पनी गैस अथॉरिटी ऑफ इण्डिया लिमिटेड (गेल) का नियन्त्राण था। इस कम्पनी की सालाना आमदनी हजारों करोड थी। सरकार ने इसका 20 प्रतिशत मालिकाना हिस्सा 70 रुपये प्रति शेयर के भाव बेच दिया जबकि उसके शेयरों का बाजार भाव 183 रुपये था और इससे भी अधिक कीमत मिलने की सम्भावना थी। इस तरह इस सौदे से रातों-रात हजारों-करोड  रुपये इसमें लिप्त सरकारी अधिकारियों, नेताओं और पूँजीपतियों की तिजोरी में चले गये। बीएसएनएल के जिस शेयर की कीमत 1100 रुपये थी, उसे महज 750 रुपये के भाव बेचा गया। हाल ही में चर्चित टेलीकॉम घोटाले के कारण संचारमंत्री ए राजा जेल में है। नियन्त्राक और लेखा परीक्षक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक लाइसेन्स फीस में घोटाले के चलते सरकार को 1,76,000 करोड़ रुपये का चूना लगा है। दरअसल दूरसंचार क्षेत्र में 1996 से ही, जब सुखराम संचारमंत्री थे, लगातार घोटाले हो रहे हैं। सबको पता है कि छापों के दौरान उनके पूजा घर से लेकर शौचालय तक में रुपये ही रुपये बरामद हुए थे, जिनके बारे में उन्हें मालूम ही नहीं था कि ये पैसे कहाँ से आ गये! 1991 के बाद चाहे जिस भी पार्टी की सरकार रही हो, सबने एक से बढ कर एक घोटाले किये हैं। ओएनजीसी द्वारा खोजे गये तेल के भण्डारों को निजी पूँजीपतियों के हवाले करने के चलते देश को हजारों करोड  का नुकसान हुआ। कृष्णा बेसिन के तेल भंडार रिलायन्स को सौंपने से सम्बन्धित नियन्त्राक और लेखा परीक्षक की रिपोर्ट अभी हाल ही में आयी हैं इसका निचोड  यह है कि पैट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों से साँठ-गाँठ करके रिलायन्स कम्पनी ने समझौते में ऐसी शर्तें रखी, जिससे सरकार को करोड़ों-अरबों रुपये का नुकसान हुआ।
      इन चन्द घटनाओं से उस विराट लूट का कुछ अन्दाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह आजादी के बाद के 50 वर्षों में मेहनतकशों की कमाई से निर्मित सार्वजनिक सम्पत्ति को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को कौडि यों के मोल बेच दिया गया। इसके अलावा अर्थव्यवस्था के जिन क्षेत्रों में पहले विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत नहीं थी, उनमें भी आसान शर्तों और भारी मुनाफे की गारण्टी के साथ पूँजी निवेश की इजाजत दे दी गयी। इसका एक बहुचर्चित उदाहरण है अमरीकी कम्पनी एनरॉन की डाभोल विद्युत परियोजना जिसने बिजली का उत्पादन शुरू करने से पहले ही अरबों रुपये डकार लिये और महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को कंगाल बना दिया था। इस कम्पनी ने फर्जी तरीके से लागत मूल्य बढ़ाकर प्रति यूनिट बिजली की कीमत देशी कम्पनियों की तुलना में काफी मँहगी कर दी। महाराष्ट्र सरकार ने यह करार किया था कि एनरॉन द्वारा उत्पादित पूरी बिजली खरीदने को वह बाध्य होगी, चाहे उसकी लागत और मूल्य कितना भी अधिक हो। इसके साथ ही सरकार ने उसे 16 प्रतिशत मुनाफे की गारण्टी भी दी थी।
      निजीकरण की इस आँधी से स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, पीने का पानी, बिजली, अनाज व्यापार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शोध संस्थान, प्रयोगशाला, बैंक, बीमा, यातायात, सामाजिक सेवाएँ, जनकल्याण कार्यक्रम, भारतीय जीवन का कोई भी पहलू बच नहीं पाया है। साम्राज्यवादपरस्त अर्थशास्त्रा का नारा है 'बाजार के मामले में सरकार अपनी दखलन्दाजी बन्द करे' जबकि सरकार की सीधी दखलन्दाजी और मेहरबानी से ही बाजारवाद फलफूल रहा है। गुलामी के इस दौर में जनता के लिए जरूरी सेवाएँ मुनाफे का साधन बन गयी हैं। इसका सबसे बुरा प्रभाव पहले से ही वंचित तबकों पर पड़ा है जिनकी आमदनी कम होती जा रही है। निजीकरण और बेलगाम पूँजीवाद के इस दौर में ऐसा होना लाजिमी है क्योंकि पूँजीवाद का मकसद अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। बाजार अर्थव्यवस्था केवल उसी की परवाह करती है जिसकी जेब में पैसा हो।
      सरकारी सेवाओं के निजीकरण को अब एक नया खूबसूरत नाम दिया गया है निजी सार्वजनिक साझेदारी। अभी हाल ही में योजना आयोग ने सरकारी स्कूलों, अस्पतालों और पेयजल जैसी जनसेवाओं को निजी पूँजीपतियों को उसी तरह ठेके पर देने का सुझाव दिया है, जैसे पीडब्ल्यूडी सड़क बनाने के लिए ठेका देता है। हकीकत यह है कि आज जो भी थोडे  से सरकारी अस्पताल और स्कूल बचे हैं, वहीं गरीबों का गुजारा हो रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक स्वास्थ्य सेवाओं पर जनता द्वारा किये गये कुल खर्च में केवल 17 प्रतिशत सरकार वहन करती है। बाकी 83 प्रतिशत निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम की लूट और कमाई का जरिया है। यही हाल स्कूलों का भी है। योजना आयोग का सुझाव सरकार द्वारा अपनी रही-सही जिम्मेदारी से हाथ उठाते हुए जरूरी जनसेवाओं को पूँजीपतियों, ठेकेदारों और माफिया सरगनाओं को सौंपने का खुला ऐलान है।

आयात-निर्यात की नीतियों में बदलाव

       अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने 1991 में एक और सुझाव दिया था विदेश व्यापार का उदारीकरण यानी आयात से रोक हटाना और निर्यात को बढ़ावा देना। लेकिन यह शर्त भी जोड दी कि केवल प्राथमिक माल जैसे चाय, कपास, मछली, अनाज, चमड़ा, खनिज पदार्थ इत्यादि या हस्तशिल्प की वस्तुओ का ही निर्यात करना है, जिसमें भारत पहले से माहिर है।
      आजादी के बाद यहाँ के शासकों ने आयात प्रतिस्थापन की नीति लागू की थी, जिसका मतलब था कि विदेशी मुद्रा बचाने, व्यापार घाटा रोकने और आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कम से कम आयात किया जाये तथा ऐसी वस्तुओं का अपने ही देश में उत्पादन बढ़ाया जाये। लेकिन आयात-निर्यात की नयी शर्तों को स्वीकारने के बाद उन्होंने इस नीति को तिलांजलि देकर निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था को अपना लिया।
      इस नीति की सफलता पर शुरू में ही संदेह व्यक्त किया गया था। यह सवाल उठाया गया था कि निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर जब सौ से भी अधिक देश एक साथ विकसित देशों की मंडी में पहुँचेंगे, जहाँ पहले से ही मन्दी छायी हुई है तो भला निर्यात केन्द्रित विकास कैसे सफल होगा। या तो विश्व बाजार में वस्तुओं की कीमतें तेजी से गिरेंगी या वहाँ निर्यात की माँग बहुत कम हो जायेगी। अस्सी के दशक में विकासशील देशों के निर्यात का कटु अनुभव इस तर्क को सही ठहराता है। एक आकलन के मुताबिक 1980 में 1991 के बीच तेल से इतर वस्तुओं के विदेशी व्यापार में विकासशील देशों को 290 अरब डॉलर का घाटा उठाना पड़ा। साथ ही अपनी निर्यात आय को पहले के स्तर पर बनाये रखने के लिए उन्हें कम कीमत पर अधिक मात्रा में सामान का निर्यात करना पड़ा। जिस निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर सरकार ने आम जनता की सुविधाओं में कटौती करके निर्यातकों को हजारों करोड  की सबसीडी दी, उसका असली लाभ धनी देशों के उपभोक्ताओं ने उठाया जिन्हें सस्ती कीमत पर अच्छी-अच्छी वस्तुएँ मिलती रही।
      इस नीति का दूसरा पहलू आयात के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना था। सरकार ने विश्व व्यापार संगठन की शर्तों से भी आगे बढ कर सीमा शुल्क में भारी कमी कर दी और आयात पर लगे प्रतिबन्धों को हटा दिया। 1991 में सीमा शुल्क 355 प्रतिशत था जिसे घटाकर 2001 तक 35 प्रतिशत और 2010 में सिर्फ 10 प्रतिशत कर दिया गया। साथ ही इसने 1429 वस्तुओं पर से आयात प्रतिबन्ध हटा लिया जिनमें अधिकांश वस्तुएँ कृषि और लघु उद्योग के उत्पाद हैं।


सुधारों के 20 वर्ष : चालू खाता घाटा (अरब डॉलर में)
वर्ष              आयात      निर्यात       चालूखाता शेष (घाटा)        जी.डी.पी. का प्रतिशत
1991&92             24.1                  18.3                    5.8                                             3.0
2009&10           300.6               182.2                 118.4                                             2.9

      
सुधारों के 20 वर्षों में आयात-निर्यात नीति में बदलाव से होने वाली तबाही को इन आँकड़ों साफ तौर पर देखा जा सकता है। तथ्य बताते है कि निर्यात की तुलना में आयात अधिक होने के चलते व्यापार घाटा साल दर साल बढ ता गया है। 1991 में व्यापार घाटा 5.8 अरब डॉलर था जो 2010 में 118.4 अरब डॉलर हो गया। इस तरह 1991 से 2010 के बीच निर्यात में 10 गुनी वृद्धि हुई जबकि व्यापार घाटे में लगभग 20 गुने की बढ़ोत्तरी हुई। दूसरी ओर आयात प्रतिबन्ध हटाने के कारण खेती और लघु उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए और उन पर निर्भर लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। निष्कर्ष यह कि आयात-निर्यात की इन नीतियों ने मंदी के शिकार साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था में प्राण वायु का संचार करने के लिए अपने देश की खेती और लघु उद्योग को तबाही की ओर धकेल दिया।

आर्थिक विकास की विकृतियाँ

      यह सही है कि आर्थिक सुधार के चलते पिछले कुछ वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है और अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में तेजीआने से देश के मुट्ठी भर लोगों की जिन्दगी में खुशहाली आयी है। लेकिन प्रश्न यह है कि इस विकास की बनावट, बुनावट और दिशा क्या है?
     किसी भी अर्थव्यवस्था को कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र में इसलिए बाँटा जाता है ताकि उनके आपसी सम्बंधों और विकास की दिशा को समझा जाये। लेकिन स्वस्थ और स्थायी आर्थिक विकास के लिए इन अलग-अलग  क्षेत्रों के बीच आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता जरूरी है। उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्रा का विकास उद्योग के विकास को प्रेरित करता है, क्योंकि खेती के उपकरणों और उस पर निर्भर लोगों का उपभोग बढ ने से औद्योगिक माल की माँग बढ ती है। साथ ही इन दोनों उत्पादक  क्षेत्रों का विकास होने से सेवा क्षेत्रा की माँग बढ ती है और उसके विकास को गति मिलती है। अगर अर्थव्यवस्था के  अलग-अलग  क्षेत्रों का आपस में कोई तालमेल न हो, यदि किसी एक क्षेत्रा में गिरावटकी कीमत पर कोई दूसरा क्षेत्रा फल-फूल रहा हो, तो इसे विकृत विकास ही कहा जायेगा, जैसे किसी के शरीर का कोई अंग तेजी से बढ ने लगे तो यह कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी को जन्म देता है जो पूरे शरीर के विनाश का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए अगर भारत जैसे कृषि प्रधान देश में खेती ठहराव का शिकार हो और सेवा क्षेत्रा तेजी से विकास कर रहा हो, बहुसंखय लोगों की वास्तविक आय बढाने वाले कृषि और उद्योग क्षेत्र की तुलना में शेयर बाजार या भवन निर्माण और जमीन-जायदाद का कारोबार फल-फूल रहा हो तो इसे स्वस्थ विकास नहीं कहा जा सकता। यह थोड़े से ऊपरी तबके के बीच सिमटा हुआ विद्रूपतापूर्ण विकास ही कहा जायेगा। विकास के मौजूदा दौर में हमारे यहाँ ऐसी ही तस्वीर दिखाई दे रही है।
     पूँजीवादी विकास की गति स्वाभाविक हो तो सकल घरेलू उत्पाद में खेती की पैदावार का अनुपात उद्योग की तुलना में कम होता है। लेकिन कुल मिलाकर पैदावार की निरपेक्ष मात्रा बढ़ती जाती है। पूरी अर्थव्यवस्था में खेती का हिस्सा जिस अनुपात में कम होता है उसी अनुपात में उसमें काम करने वाली श्रम शक्ति की संखया भी कम होती जाती है। यानी उत्पादकता बढ ने के चलते कम श्रमिक ही पहले से अधिक मात्रा में उत्पादन कर लेते हैं और बाकी लोगों को उत्पादन के दूसरे  क्षेत्रों में रोजगार मिल जाता है क्योंकि खेती का विकास उत्पादन की दूसरी शाखाओं में रोजगार के नये-नये अवसर पैदा करता है। वर्तमान सुधारों के दौरान ऐसा कुछ नहीं हुआ। 1983-84 में खेती में कुल श्रम शक्ति का 68.5 प्रतिशत लगा हुआ था जिसका सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा 37 प्रतिशत था। 2004-05 में 56.5 प्रतिशत श्रम शक्ति खेती में लगी थी जबकि अर्थव्यवस्था में उसका हिस्सा 21.1 प्रतिशत था। इसका सीधा अर्थ है कि कृषि क्षेत्रा में सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में 2.7 गुना अधिक श्रमिक लगे हुए हैं जबकि 20 वर्ष पहले यह अनुपात दो गुना ही था। काबिलेगौर बात यह भी है कि इसी अवधि में खेती का मशीनीकरण भी बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था के दूसरे  क्षेत्रों के श्रमिकों का औसत उत्पादन कृषि क्षेत्रा के श्रमिकों की तुलना में 5 गुना अधिक है। 2010 के आंकड़ों के मुताबिक कृषि क्षेत्रा के श्रमिकों की औसत आय में और भी कमी आयी है क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी (16.1 प्रतिशत) की तुलना में कार्यरत श्रम शक्ति (52 प्रतिशत) का अनुपात बढ कर 3.2 गुना हो गया। पहले शासक वर्ग खेती के विकास पर ध्यान देता था क्योंकि उसे चिंता थी कि खेती के पिछड़ने से उद्योग की माँग गिरेगी। लेकिन विकृत विकास के मौजूदा दौर में अभिजात्य वर्ग की छोटी सी जमात की माँग को पूरा करने के लिए कृषि का सीमित विकास भी पर्याप्त है। इसीलिए हमारे शासकों ने पूरे देश के बारे में सोचना बन्द कर दिया है। उन्होंने खेती को हाशिये पर धकेल दिया है। अब यदि वे खेती के विकास के बारे में सोचते भी हैं, तो उनका मकसद खेती से अधिकाधिक मुनाफा हासिल करने और किसानों के शरीर से एक-एक बूंद रक्त निचोड ने में देशी-विदेशी पूँजीपतियों, अनाज व्यापारियों, खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों और कृषि लागत का कारोबार करने वालों की मदद करना होता है।
     विनिर्माण क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा इन्हीं 20 वर्षों (1983-84 से 2004-05) में 14.3 प्रतिशत से बढ कर 15.1 प्रतिशत हुआ, यानी केवल 0.8 प्रतिशत बढ़ा है जबकि इस बीच श्रमशक्ति 10.7 प्रतिशत से बढ कर 12.2 प्रतिशत हुई है। विनिर्माण क्षेत्र को दो हिस्सों में बाँटा गया है संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र। संगठित क्षेत्र में विनिर्माण में लगी देश की कुल श्रम शक्ति का 2 प्रतिशत ही कार्यरत है, जबकि असंगठित क्षेत्रा में 10.2 प्रतिशत। संगठित क्षेत्र में कार्यरत कुल श्रमिकों की संख्या 1997-98 से 2004-05 के बीच 16 प्रतिशत कम हुई है।
     वर्ष 2001-02 में देश भर में कुल 1.29 लाख फैक्ट्रियाँ थी जिनमें से 1.05 लाख लघु उद्योग थे, जहाँ प्लांट और मशीन पर एक करोड रूपये से कम पूँजी लगी थी। शेष 24 हजार मध्यम और बड़ी फैक्ट्रियों में देश की कुल श्रम शक्ति का केवल 1.5 प्रतिशत कार्यरत था जबकि देश के कुल औद्योगिक उत्पादन का 60 प्रतिशत इन्हीं थोड़ी सी फैक्ट्रियों में होता था। यानी भारत के औद्योगिक श्रमिकों का बड़ा हिस्सा लघु उद्योगों में उत्पादन के पारम्परिक और पिछड़े साधनों पर निर्भर है जहाँ असंगठित मजदूरों द्वारा बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिये बड़े ब्राँडनेम वाले सामान बनाये जाते हैं। उद्योग की ऊँची विकास दर में मुखयतः ऐसे ही श्रमिकों का योगदान है जो बेहद खराब सेवा शर्तों और बहुत ही कम मजदूरी पर लघु उद्यमों और असंगठित क्षेत्र में खटते हैं।
     सुधारों के इस दौर में अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्रा काफी तेजी से बढ़ा है। सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्रा का हिस्सा 1983-84 में 38.6 प्रतिशत से बढ कर 2004-05 में 53 प्रतिशत हो गया, यानी 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी दौरान वहाँ काम करने वाले श्रमिकों की संख्या 17.6 प्रतिशत से बढ कर 24.6 प्रतिशत हो गयी। सेवा क्षेत्र का बड़ा हिस्सा कम मजदूरी वाले छोटे-छोटे कामों में लगे लोगों का है जिनका गुजारा मुश्किल से ही हो पाता है। थोड़ी संख्या में ऊँची आय वाले श्रमिक आईटी, वित्त, जमीन-जायदाद का कारोबार, मीडिया और बिजनेस सेवाओं में लगे हुए हैं जहाँ सेवा क्षेत्रा में लगी कुल श्रम शक्ति का केवल 2 प्रतिशत ही कार्यरत हैं, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में इसका हिस्सा 13.5 प्रतिशत है।
    किसी भी देश में जहाँ विकास का स्तर वहाँ पहुँच गया हो कि जनता की बुनियादी जरूरतें आसानी से पूरी हो रही हों, वहाँ सेवा क्षेत्र का विस्तार कोई बुरी बात नहीं। लेकिन जिस देश में जनता का बड़ा हिस्सा अपनी न्यूनतम जरूरतों से भी वंचित हो वहाँ सेवा क्षेत्रा का बेहिसाब फूलते जाना अर्थव्यवस्था की परजीविता और रुग्णता का सूचक है। परजीवी इसलिए कि यह क्षेत्रा अपनी मौलिक जरूरतों के लिए कृषि और उद्योग में लगे उत्पादक लोगों पर निर्भर है जबकि बदले में उनमें से अधिकांश श्रमिकों को कुछ नहीं देता। सोचिए, कितने किसान या फैक्ट्री मजदूर मनोरंजन, होटल, मीडिया, आईटी, फैशन, कोठी-बंगला की खरीद-बिक्री, सिनेमा, व्यापार सेवाएँ या अत्याधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग करते हैं। दूसरी ओर वे श्रमिक ही इस परजीवी क्षेत्रा में कार्यरत लोगों की हर छोटी-बड़ी जरूरत की वस्तुएँ पैदा करने के लिए दिन-रात खटते हैं।
    जाहिर है कि आर्थिक सुधारों ने विभिन्न क्षेत्रों के बीच विषमता की खाई बहुत चौड़ी की है, वास्तविक उत्पादन क्षेत्रा की जगह परजीविता को बढ़ावा दिया है, औद्योगिक उत्पादन को मुट्ठीभर अभिजात्यों की माँग तक सीमित रखा है और इस तरह देश की मेहनतकश आबादी को इस विकास से बाहर धकेल दिया है।

रविवार, 28 अगस्त 2011

शेयर बाजार में उछाल : सट्टेबाजों की मौज

      1990 से पहले भारत का शेयर बाजार बहुत ही मामूली था। सरकार द्वारा विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए किये गये उपायों के चलते शेयर बाजार का बेहिसाब विस्तार हुआ है। आज भारत के दो प्रमुख शेयर बाजारों - बीएसई और एनएसई की बाजार पूँजी क्रमशः 1590 अरब डॉलर और 1630 अरब डॉलर है। ये दुनिया के सबसे तेजी से विकास करने वाले शेयर बाजारों में हैं।
      शेयर बाजार को अर्थव्यवस्था के विकास का सूचक बताते हुए हमारे देश के शासक, उनके चाटुकार  बुद्धिजीवी और मीडिया इसका गुणगान करते हैं, जबकि 2007 में जब शेयर सूचकांक 20000 की ऊँचाई पार कर गया तो अचानक उनकी नींद हराम होने लगी। कहा जाने लगा की शेयर बाजार की तेजी का अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं, यह तो सटोरियों की कारगुजारी है।
      शेयरों की कागजी खरीद-फरोखत और कीमतें घटने-बढ़ने का किसी कम्पनी की वास्तविक क्षमता या कुशलता से कोई लेना-देना नहीं होता। यह सीमित मात्रा में उपलब्ध कुछ खास कम्पनियों के शेयरों की माँग बढ ाने या जानबूझकर बढाए जाने का नतीजा होता है, जिसका सबसे अधिक फायदा उसे जारी करने वाली कम्पनी (प्रोमोटर) को होता है, क्योंकि शेयर का दाम बढ ने से उसकी पूँजी रातोंरात बढ  जाती है। इसमें उस कम्पनी के उत्पादन, निवेश, रोजगार सृजन, तकनीकी विकास या कार्यकुशलता का कोई योगदान नहीं होता। देश की अर्थव्यवस्था के बचत, निवेश या उत्पादन में भी इससे कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती। इसे तो राष्ट्रीय आय में भी नहीं जोड़ा जाता। उल्टे जब बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी सट्टेबाजी में लगती है तो हमेशा इस बात का खतरा बना रहता है कि सटोरिये बाजार में तेजी आने पर अचानक सारा पैसा लेकर उड न छू हो सकते हैं और अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं। 1990 के दशक में पूर्वी एशिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को सट्‌टेबाजों ने ही संकटग्रस्त किया था।
      शेयर बाजार में ज्यादा पैसा लगना, यानी अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण उसके स्वास्थ्य को नहीं बल्कि वास्तविक उत्पादन के क्षेत्रा और रोजगार सृजन की खराब स्थिति को दर्शाता है। सोना-चाँदी,  जमीन-जायदाद और रिहायशी मकानों की बढ ती कीमतें और शेयर बाजार में उछाल इसी बात का प्रमाण है कि हमारे देश में कालाधन, रिश्वतखोरी और विषमता बेलगाम बढ  रही है तथा कुछ लोगों के पास इतना पैसा है कि वे उसे इन अनुत्पादक कामों में लगाकर अपनी दौलत बेतहाशा बढ़ा रहे हैं। बाजार में जरूरी चीजों की कीमतों को बढ़ाते जाने में भी चंद हरामखोरों की काली कमाई का बड़ा हाथ होता है क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति आम आदमी की तुलना में कई-कई गुना अधिक होती है। हालाँकि भारत में अपनी बचत का पैसा लगाने के मामले में घरेलू निवेशकों की दिलचस्पी आज भी शेयर बाजार में बहुत कम है। वे जितना पैसा शेयर बाजार में लगा रहे हैं, उसका आठ गुना जमीन-जायदाद में लगा रहे हैं। 2007 में जमीन-जायदाद में 24,112 करोड  और सोना-चाँदी में 47,000 करोड  रुपये का निवेश किया गया था। शेयर बाजार की तुलना में लोग बैंकों के फिक्स डिपोजिट में अधिक पैसा लगाते हैं। यानी, सिर्फ गिने-चुने लोग और विदेशी निवेशक ही शेयर बाजार की सट्टेबाजी में हिस्सा लेते हैं, जो बिना उत्पादन किये, केवल तेजडियों की चालबाजी से करोंडो-अरबों रुपये कमाते हैं और इस कमाई पर कोई टैक्स भी नहीं देते। शेयर सूचकांक में उछाल का मतलब केवल छोटे से तबके का मालामाल होना है। जैसाकि हर तरह के जुए में होता है, यहाँ भी नुकसान उनका ही होता है जो छोटा दाँव लगाते हैं।
      शेयर बाजार की परजीविता कितनी तेजी से बढ़ रही है इसका उदाहरण इस बात से लगाया जा सकता है कि हर साल उद्योगों में सालाना निवेश लगभग 10 हजार करोड  है जो मुम्बई शेयर बाजार के तीन दिन के कारोबार के बराबर है। शेयर बाजार की कुल बाजार पूँजी हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग डेढ  गुना है।
      दुनिया भर के सटोरियों के लिए भारत आज सबसे आकर्षक जगह बना हुआ है। सरकार ने जानबूझ कर इस जुएबाजी के लिए माहौल तैयार किया है। 2005 में सरकार ने दीर्घकालिक पूँजीगत लाभ पर टैक्स समाप्त कर दिया था, यानी उत्पादक कामों में पूँजी लगाकर मुनाफा कमाने वालों को तो टैक्स देना पड़ेगा, लेकिन सट्टेबाजी की कमाई पर कोई टैक्स नहीं होगा। साथ ही उसने मॉरिशस में पंजीकरण करवाकर टैक्स चुराने वाली कम्पनियों को, बिना पंजीकृत कम्पनियों को, दलालों द्वारा जारी किये गये बेनामी रुक्कों के जरिये सट्टेबाजी करने वालों को और यहाँ तक कि घपलेबाज हेज फण्ड तक को भारत के शेयर बाजार में आने की इजाजत दे दी। ऑपसन्स और फ्यूचर्स के जरिये वायदा कारोबार पर से रोक हटा ली गयी और अब हर तरह की सम्पत्ति पर सट्टेबाजी के लिए रास्ता साफ किया जा रहा है।
       आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था सटोरिया पूँजी के तर्क से संचालित हो रही है जो उत्पादक गतिविधियों की तबाही पर फल-फूल रही है। अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इतनी पुरानी और विराट हैं, उनकी उत्पादक शक्तियाँ इतनी विकसित हैं और दुनियाभर में उनकी पूँजी इतने भारी पैमाने पर फैली हुई है, उसकी बदौलत वहाँ सट्टेबाजी का कारोबार फल-फूल सकता है और उसकी तबाही को भी वे एक हद तक झेल सकते हैं। लेकिन हमारे देश में पहले से ही जर्जर अर्थव्यवस्था और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के ऊपर थोपी गयी परजीवी सटोरिया पूँजी अर्थव्यवस्था का विनाश कर देगी और आबादी के बड़े हिस्से को तबाही की ओर धकेल देगी। इस बात का अहसास हमारे शासकों को भी है। दुनियाभर के शेयर बाजारों में समय-समय पर आने वाले भूचालों के दुष्परिणाम से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। तभी तो जब 2007 में शेयर बाजार उछाल मारने लगा तो वह उनके गले की हड्‌डी बन गया था। लेकिन फिर भी हमारे 'सुधारक' 'उद्धारक' शासक वर्ग इसे इतना प्रश्रय क्यों दे रहे हैं? क्यों वे शेयर बाजार के घोटालों पर पर्दा डालते हैं और सट्टेबाजी के भँवर में डूबने वालों को उबारते हैं? क्यों वे उनके लिए कर चोरी के रास्ते बनाते हैं और उन्हें बैंकों से कर्ज दिलाते हैं।
       इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे देश में सुधारों के बाद विदेशी पूँजी पर निर्भरता बढ़ी है। मुक्त आयात-निर्यात नीति लागू होने के बाद से ही चालू खाता घाटा लगातार बढ ता जा रहा है। इस व्यापार घाटे को पूरा करने, विदेशी कर्ज की राशि का भुगतान करने और अमीरों की विदेश यात्रा का खर्च उठाने के लिए डॉलर का लगातार आते रहना जरूरी है चाहे जिस भी तरीके से आये और जितना भी जोखिम भरा
हो, भुगतान संतुलन के लिए डॉलर का भंडार भरा दिखना जरूरी है। यही कारण है कि हमारे शासक सब कुछ जानते हुए भी शेयर बाजार की उड नछू विदेशी पूँजी को रिझाने में लगे रहते हैं।

विदेशी मुद्रा भंडार की असलियत

       1990 में भुगतान संतुलन के संकट ने देश को दिवालिया होने के कगार पर पहुँचा दिया था। इसी अफरा-तफरी में सरकार ने डॉलर महाप्रभु के आगे शीश झुकाते हुए हर कीमत पर विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने का रास्ता अपनाया था। हमारे शासक विदेशी मुद्रा भंडार को विकास का पैमाना बताते हैं जबकि सच्चाई कुछ और ही है।
       विदेशी मुद्रा भंडार जिस भी ह्लोत से आता है वह बदले में भारी मुनाफा या ब्याज वापस ले जाता है। यदि वह शेयर बाजार में लगे तो सट्‌टेबाजी के जरिये बेहिसाब कमाई करता है। कर्जदाता हों या विदेशी निवेशक या अप्रवासी भारतीय जमाकर्ता, सबका मकसद अपनी दौलत बढ़ाना होता है। लेकिन सरकार इन पैसों को विदेशों में प्रतिभूति या बॉण्ड में लगाती है जिस पर उसे एक या दो प्रतिशत का ही लाभ मिलता है, जबकि उसे मुनाफे और ब्याज के रूप में भारी रकम चुकानी होती है। इस तरह विदेशी मुद्रा भंडार कोई डींग हाँकने वाली चीज नहीं बल्कि एक देनदारी है।
      यदि विदेशी मुद्रा विदेशी व्यापार में लाभ से अर्जित होती तो वह अपनी चीज होती, लेकिन हमारे देश में विदेश व्यापार में हर साल ही घाटा होता है। 2009-10 में यह घाटा 118.4 अरब डालर था। इस घाटे की भरपाई विदेशी निवेश या अप्रवासी भारतीय द्वारा जमा किये गये पैसे से या उधार लेकर की जाती है जो काफी महँगा सौदा है। आयात किये जाने वाले अधिकांश सामान धनाढ्‌यों के उपभोग के लिए होते हैं, जबकि निर्यात मेहनतकशों के खून पसीने से तैयार होने वाली वस्तुओं का होता है। जाहिर है कि विदेश व्यापार घाटे के लिए समाज का ऊपरी तबका ही जिम्मेदार है।
      1991 के अंत में भारत का कुल विदेशी मुद्रा भंडार केवल 5.8 अरब डालर था जो 2010 तक 282.9 अरब डॉलर हो गया। लेकिन इनमें से एक पैसा भी अपनी कमाई का नहीं है। इसमें 236.2 अरब डॉलर विदेशी पूंजी निवेश और 179.5 अरब डॉलर कर्ज या उधार का है। यानी कुल मिलाकर 415.7 अरब डॉलर बाहर से आया जिसमें से 144.7 अरब डॉलर विदेशी व्यापार घाटे की भेंट चढ़ गया और मुद्रा भंडार में केवल 292.9 अरब डॉलर ही बचा रहा जबकि 415.7 अरब डॉलर की देनदारी ज्यों की त्यों बची रही। इस देनदारी पर ब्याज और मुनाफे के रूप में हर साल अरबों रुपये विदेशी पूँजीपतियों, अप्रवासी भारतीयों और विदेशी वित्तीय संस्थाओं को भुगतान करना पड ता है। क्या यह सब गर्व करने की बात है?

खेती और किसानों की तबाही

       अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के तहत सरकार ने कृषि क्षेत्र को भी विश्व बाजार की लुटेरी ताकतों के लिए खोल दिया है। अपने देशों में मन्दी की मार झेल रहे विदेशी पूँजीपति और वहाँ की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारी खेती को पूँजीनिवेश और भारी मुनाफे का नया सुरक्षित क्षेत्र मानती हैं। वे चाहते हैं कि हमारे देश की जमीन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधन, लाखों प्रजातियों के पौधों के जीन, कृषि विज्ञान केन्द्र और प्रयोगशालाएँ, कृषि वैज्ञानिक, किसानों-मजदूरों की मेहनत और पैदावार पर पूरी तरह उनका कब्जा हो जाये। इसीलिए खेती को डंकल प्रस्ताव के जरिये विश्व व्यापार संगठन के समझौतों में शामिल किया गया। उन्हीं शर्तों को लागू करते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्रा से सभी तरह के नियंत्राण और संरक्षण हटा लिए और इसे देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट का चारागाह बना दिया।
       वर्ष 2000 के बाद लगभग 1400 सामानों से आयात प्रतिबंध हटाकर सरकार ने भारतीय बाजारों को विदेशी माल से पाटने का रास्ता साफ कर दिया। इसमें अधिकांश खेती, पशुपालन और लघु उद्योग के उत्पाद हैं जिनके आयात से ग्रामीण आबादी की रोजी-रोटी सीधे प्रभावित हुई है। साथ ही, सरकार ने आयात-निर्यात के नियमों में ढील देकर कृषि उपज के विदेशी व्यापार को आसान बना दिया। नतीजा यह कि आयात-निर्यात में लगे थोड़े से पूँजीपतियों ने सरकारी सबसिडी और मुनाफे के रूप में भरपूर कमाई की, वहीं किसानों को विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव के आगे असहाय छोड  दिया गया।
       कृषि लागत और समर्थन मूल्य के मद में किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में लगातार कटौती की गयी। इसके चलते 1992 के बाद खाद और बीज की कीमतों में चार गुने से भी अधिक की वृद्धि हुई। सिंचाई मद में सरकारी बजट में कमी तथा सरकारी नलकूपों और नहरों की उपेक्षा के कारण देश भर के किसान को सिंचाई के निजी नलकूपों पर अरबों रुपये खर्च करने पड़े जबकि इससे बहुत कम लागत में सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था हो सकती थी। इस बीच सिंचाई के निजी साधनों और कृषि यंत्रों का प्रचलन बढ ने के कारण किसानों की ऊर्जा खपत काफी बढ  गयी, जबकि इसी बीच सरकार ने बिजली और डीजल को भी निजी मुनाफे और लूट के हवाले कर दिया। इसके चलते खेती की लागत दिनों-दिन बढ ती जा रही है।
       सुधारों के नाम पर सरकार ने खेती की कितनी अवहेलना की है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1990-91 में केन्द्र सरकार खेती की मद में सकल घरेलू उत्पाद का 0.49 प्रतिशत खर्च करती थी। इस तुच्छ राशि को भी 2005-06 तक घटाते-घटाते 0.21 प्रतिशत कर दिया गया। इसी अवधि में सरकार ने सिंचाई और बाढ  नियंत्राण पर खर्च की जाने वाली राशि को भी 0.06 प्रतिशत से घटाकर 0.02 प्रतिशत कर दी।
हमारे देश में 80 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं जिनके पास जमीन तो कम ही है, खेती के संसाधन और पूँजी का भी अभाव है। खाद, बीज, पानी, बिजली और खेती के औजारों के लिए कर्ज के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होता। जैसे-जैसे लागत बढ़ती गयी, किसानों के ऊपर कर्ज लेने का बोझ भी बढ ता गया। नयी आर्थिक नीतियों के तहत बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्रा को दिये जाने वाले कर्ज की राशि में भी कटौती की गयी। साथ ही कृषि ऋण का भारी हिस्सा बड़े फार्मरों, कॉरपोरेट घरानों तथा कृषि उपकरणों, खाद्य प्रसंस्करण और ठेका खेती करने वाली कम्पनियों की ओर मोड  दिया गया। ग्रामीण बैंक आज गाँवों में जमा होने वाली कुल राशि में से केवल १५ प्रतिशत ही किसानों को कर्ज के रूप में देते हैं और वह भी पहले से अधिक ब्याज दर पर। जिन किसानों के पास अपनी जमीन नहीं है उन्हें गारण्टी के आभाव में बैंक कोई कर्ज नहीं देते। इन्हीं कारणों से आज किसानों के कुल कर्ज में बैंकों और सहकारी संस्थाओं द्वारा दिये गये कर्ज का हिस्सा 8 से 10 प्रतिशत ही है। बाकी कर्जों के लिए वे निजी सूदखोरों पर निर्भर हैं या साहूकारों, आढतियों और खाद-बीज व्यापरियों से काठोर शर्तों और भारी ब्याज दर पर उधार लेने को मजबूर हैं।
      किसानों को ठेका खेती का सब्जबाग दिखाया जा रहा है जबकि देश के कई इलाकों में किसानों को उसका कड वा स्वाद पहले ही मिल चुका है। आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के किसानों ने कम्पनियों से करार करके 30-40 हजार रुपये प्रति एकड  की लागत से खीरे की खेती की थी। दुनिया के बाजारों में खीरे की माँग कम होने का हवाला देकर कम्पनियों ने खीरा खरीदने से मना कर दिया। इसके चलते वहाँ के हजारों किसान कर्ज के जाल में फँसकर तबाह हो गये और कई किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। आलू, टमाटर, बासमती धान और अन्य फसलें उगाने वाले देश के विभिन्न इलाकों के किसानों को भी ऐसे ही कटु अनुभवों से गुजरना पडा। और तो और, सरकार ने ठेका खेती और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) कानून बनाया है जिसे कई राज्यों ने स्वीकार भी कर लिया है। इसके तहत मंडी समीतियों के समानान्तर प्राइवेट मंडी खोलने के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सरकार सस्ती जमीन देगी, कम्पनियाँ सीधे किसानों से खरीद-फरोखत करेंगी, यानी कृषि व्यापार, मूल्य निर्धारण और खरीद-बिक्री की शर्तों में सरकार कोई दखल नहीं देगी ताकि पूँजीपति खुलकर खेल सकें।
      खेती से होने वाली आय में लगातार कमी और उससे गुजारा न हो पाने के कारण लाखों किसानों ने खेती करना छोड  दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2005 के मुताबिक 1991 से 2001 के बीच 44 लाख तथा 2001 और 2005 के बीच 1 करोड  70 लाख किसान परिवारों को खेती छोड ने पर विवश होना पड़ा। साथ ही देश के 40 प्रतिशत किसान खेती-बाड़ी छोड कर कोई अन्य रोजगार अपनाना चाहते हैं, लेकिन वैकल्पिक रोजगार का अवसर न होने के कारण उनके लिए खेती छोड ना सम्भव नहीं। सर्वेक्षण के मुताबिक 10 में से 8 किसानों के लिए आज खेती गले की हड्‌डी बन गयी है। लगातार घाटे और कर्ज के जाल में फँसने के चलते पिछले कुछ वर्षों में देशभर के लाखों किसानों ने आत्माहत्या की है। लेकिन इतने भारी पैमाने पर किसानों की तबाही और मौत की दिल दहना देने वाली घटनाओं का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। वह आज भी किसानों के खिलाफ नयी-नयी साम्राज्यवादपरस्त नीतियाँ लागू करती जा रही है।
      भारतीय खेती को दैत्याकार अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों की लूट का चारागाह बनाने के लिए हमारे शासक लम्बे समय से साम्राज्यवादियों के साथ साँठ-गाँठ कर रहे हैं। जार्ज बुश और मनमोहन सिंह के बीच हुई बातचीत के बाद जुलाई 2005 में 'कृषि ज्ञान पहल' योजना शुरू करने की घोषणा की थी। 8 नवम्बर 2010 को मनमोहन सिंह और बराक ओबामा ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जो खाद्य सुरक्षा और एवरग्रीन (सदाबहार) क्रान्ति के नाम पर भारतीय खेती को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट के लिए खोलने की एक मुकम्मिल योजना है।
       प्रधानमंत्री ने भारत की हरित क्रान्ति में अमरीका की भूमिका की तारीफ करते हुए ''दूसरी हरित क्रान्ति'' को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें फिर से आगे आने का स्वागत किया। सच तो यह है कि हरित क्रान्ति भारतीय खेती के लिए कोई रामबाण दवा नहीं थी। सम्पूर्णता में देखें तो इससे कृषि क्षेत्रा की जितनी समस्याएँ हल नहीं हुईं, उससे कहीं ज्यादा नयी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। चाहे वह मुट्‌ठी भर ऊपरी तबके के किसानों की खुशहाली की कीमत पर बहुसंखय किसानों की तबाही हो या जमीन की उर्वरता और भूजल का क्षरण। लेकिन सबके बावजूद हरित क्रन्ति की सीमित सफलताओं के पीछे सरकारी भूमिका थी। उस दौर में सरकारी खर्च पर उन्नत किस्म के बीज किसानों को मुहैया कराये गये थे जबकि आज हमारे शासकों ने सदाबहार क्रान्ति की बागडोर मोन्सेण्टो, डाउ और डूपोन्ट जैसी कुखयात अमरीकी कृषि व्यापार कम्पनियों के हाथ में थमा दी है जिनका जीन परिवर्तित बीजों के बौद्धिक सम्पदा अधिकार (पेटेन्ट) पर एकाधिकार कायम है। वे भारत के कृषि अनुसंधान संस्थानों भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीन काम करने वाले ढेर सारे उच्चस्तरीय संगठनों और कृषि विश्वविद्यालयों तथा उनसे जुड़े हुए प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के दिल-दिमाग पर कब्जा करना चाहते हैं। बायो टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग को अपने अकूत मुनाफे का साधन बनाने के लिए वे काफी समय से यहाँ के कृषि अनुसंधान ढाँचे की ओर ललचाई नजरों से देख रहे हैं। साथ ही उनका मकसद यहाँ की जैवविविधता वाली हजारों तरह की प्रजातियों पर शोध करके उनका पेटेन्ट कराने और अपना एकाधिकार कायम करना भी है। सरकार ने उनकी मंशा पूरी कर दी।
      कृषि ज्ञान पहल के सर्वोच्च निकाय में शामिल मोनसेण्टो, वालमार्ट और आर्चर डेनियल्स मिडलैण्ड जैसी अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार प्रयास कर रही थीं कि जीन परिवर्तित जीवों और बीजों, ठेका खेती और कृषि क्षेत्रा के बौद्धिक सम्पदा अधिकार से सम्बन्धित जितने भी नियम कानून हैं, उन्हें सरकार बदल दे ताकि उनके लूट के रास्ते में कोई अवरोध न रह जाये। जीन परिवर्तित बीजों की बिक्री की अनुमति देने के मामले में विदेशी कम्पनियों के साथ सरकार की साँठ-गाँठ के कितने ही उदाहरण पिछले दिनों सामने आये। बीटी बैंगन को सरकार ने गुपचुप तरीके से मान्यता दे दी। लेकिन जनता के आक्रोश को देखते हुए पर्यावरण मंत्री को अस्थायी रूप से उसकी अनुमति रद्द करनी पड़ी थी। अब सरकार ने बायोटेक्नोलॉजी नियमन प्राधिकरण कानून के तहत जैवपरिवर्तित बीजों और उससे तैयार मालों के विरोध का गला घोटने का रास्ता साफ कर दिया। यह कानून ऐसी संदिग्ध वस्तुओं से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण जानकारी जनता से छुपाने में विदेशी कम्पनियों के लिए मददगार है, जबकि खुद अपने देशों में उन्हें इस मामले में पारदर्शिता बरतनी पड ती है। यह कानून ठेका खेती, कॉरपोरेट खेती, खाद्य प्रसंस्करण, भण्डारण, खुदरा और थोक व्यापार, संकर और निर्वंशी बीज की बिक्री, उपज के अनुभव और खेती के अन्य आंकड़ों तक पहुँच जैसे हर पहलू को अपने आप में समाहित करने वाला है। सरकार इस पर तेजी से अमल करती जा रही है।
      भारत सरकार विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र की वार्ताओं में अमरीका का पक्ष लेने पर सहमत है। 2008 में वार्ता के दौरान भारत सरकार ने विकासशील देशों के साथ मिलकर अमरीका द्वारा अपनी खेती को भारी सबसिडी दिये जाने का विरोध किया था, लेकिन उसके बाद से ही अब हमारे शासक अपनी उस गलती को सुधारने और अमरीका को खुश करने में लगे हैं। ओबामा-मनमोहन द्विपक्षीय वार्ता में दोहा चक्र की वार्ताओं को सफल बनाने का वचन दिया गया। कई विकासशील देश इसके खिलाफ हैं जबकि अमरीकापरस्ती के चलते भारत के शासक कृषि क्षेत्रा को साम्राज्यवादियों के हवाले करने पर उतारू हैं।