शुक्रवार, 22 मई 2020

यह समय एक होने का है न कि लांछन लगाने का।

आज भी कुछ लोग यह सवाल करते हैं कि चीन ने महामारी पर कैसे काबू पा लिया? लेकिन वे यह लेख पढ़ना नहीं चाहते, जिसमें इसकी जानकारी दी गयी है.


यह विचारोत्तेजक लेख फरवरी में मंथली रिव्यु (https://mronline.org/2020/02/07/this-is-the-time-for-solidarity-not-stigma/) में छपा था. उसी समय साथी राजेश से इसके अनुवाद को लेकर बात हुई थी और उन्होंने इसका अनुवाद तुरंत करके दे भी दिया. लेकिन अपनी व्यस्तता के चलते मैं इसे ब्लॉग पर पोस्ट नहीं कर पाया. चीन ने कोरोना महामारी से कैसे संघर्ष किया, यह इस लेख का विषय है जो आज भी बहुत प्रासंगिक है.

प्यारे दोस्तो,
त्रिमहाद्वीपीय सामाजिक अनुसंधान संस्थान की ओर से आप सबका अभिवादन।

चीनी गणतन्त्र के शहर वुहान में दिसंबर 2019 में कई लोगों में एक संक्रमण फैलना शुरू हुआ। शुरुआती लक्षणों से पता चला कि यह वायरस हयूनान सी फूड के थोक बाजार से पैदा हुआ। लेकिन अभी तक इसके बारे में कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। इस कुख्यात कोरोना वायरस ने पहले महीने में ही सैकड़ों लोगों को संक्रमित कर दिया। संबन्धित अधिकारियों ने तीस शहरों को गंभीर आपातकाल के तहत और देश के बड़े हिस्से को बाकी दुनिया से एकदम अलग करने को कहा है जिसमें 11 करोड़ से ज्यादा आबादी वाला वुहान शहर भी शामिल है। 30 जनवरी, जब कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दस हजार पहुँच गयी तो विश्व स्वास्थ संगठन (डबल्यूएचओ) ने वैश्विक स्वास्थ आपातकाल की घोषणा की।

डबल्यूएचओ के पत्रकार सम्मेलन में महानिदेशक टेड्रोस अधनोम ने कहा, “जिस रफ्तार से चीन ने प्रकोप का पता लगाया, वायरस को अलग किया, जीनोम को अनुक्रमित किया और डबल्यूएचओ के साथ इसे साझा किया। इसकी तारीफ शब्दों से परे है, पूरी दुनिया इसकी कायल है। यह चीन का पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता और दूसरे देशों को समर्थन करना है। वास्तव में चीन तमाम तरह से इस प्रकोप पर प्रतिक्रिया के नए मानक स्थापित कर रहा है। यह कोई अतिशियोक्ति नहीं है। नव घोषित कियाओ कलेक्टिव ने एक छोटी सी रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट ऐसी महामारी के वक्त पूंजीवाद के समक्ष चीनी समाजवाद के फायदे बताती है। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था यह कभी नहीं समझपाती कि मुनाफे से ज्यादा प्राथमिकता लोगों को देने का क्या मतलब है। टेड्रोस ने तीन महत्वपूर्ण कथन के साथ अपनी बात खत्म की।

यह समय तथ्यों का है न कि भय का।
यह समय विज्ञान का है न कि अफवाहों का।
यह समय एक होने का है न कि लांछन लगाने का।

तथ्यों और एक होने का सवाल महत्वपूर्ण है। अमरीका के व्यापार सचिव विलबूर रॉस ने हास्यास्पद रूप से उम्मीद जताई कि कोरोना वाइरस का प्रकोप चीन की अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा और अमरीका के लिए नौकरी लाएगा। असंवेदनशील होने के अलावा यह टिप्पणी अमरीका जैसी जगहों पर पुनर्जीवन आपूर्ति श्रंखला की समझ के बारे में कमी को दर्शाती है। अमरीका चीनी उत्पादों पर कार और कंप्यूटर के अलावा भी निर्भर है। अमरीका में दवाओं के लिए 80 प्रतिशत दवा सामाग्री का उत्पादन चीन और भारत में होता है और अमरीका ले लिए 90 प्रतिशत विटामिन सी की खुराक चीन में बनती है। टेड्रोस की एक होने के लिए की गयी अपील को हमारा मार्गदर्शन करना चाहिए न कि लांछन से और न ही व्यापार युद्ध से जो साम्राज्यवादी गुट चाहता है।


अपने बयान के बीच में डबल्यूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस ने कहा कि “मैं हजारों बहादुर स्वास्थकर्मियों और पहली कतार में खड़े लोगों का भी धन्यवाद व्यक्त करता हूँ जो स्प्रिंग त्योहार (चीन में नववर्ष पर एक सप्ताह का त्यौहार) के बीच में बीमारों का इलाज करने के लिए 24 घंटे, सातों दिन काम कर रहे हैं, जिंदगियाँ बचा रहे हैं और इस प्रकोप को नियंत्रण में ला रहे हैं”। संसाधनों को नए अस्पताल बनाने में लगा दिया गया है। जैसे वुहान हुओशेंशान अस्पताल रिकॉर्ड गति से बना और इस हफ्ते चालू भी हो गया।
  
चीन के भीतरी इलाकों से डॉक्टर और नर्स वुहान में संक्रमित लोगों की मदद के लिए जारहे हैं। संघाई चिकित्सा उपचार विशेषज्ञ समूह के मुख्य डॉक्टर झांग वेंहोंग ने कहा “चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य जो डॉक्टर और चिकित्सक हैं वह अग्रिम पंक्ति में होने चाहिए”।
झांग वेंहोंग ने कहा जब डॉक्टर और नर्स कम्युनिस्ट पार्टी में भर्ती होते हैं तो वे लोगों की सेवा करने की शपथ लेते हैं। यही शपथ उनका आज मार्गदर्शन कर रही है। वुहान की यूनियन मेडिकल कॉलेज में 31 नर्स ने अपने लंबे बाल कटवा लिए जिससे उन्हें अपनी शिफ्ट के लिए तैयार होने में कम समय लगे। कम्युनिस्ट पार्टी के युवा डॉक्टर वायरस पर नियंत्रण के लिए अस्पताल में शिफ्ट के लिए झुंड के झुंड में आ रहे हैं। सरकारी कंपनियाँ अनगिनत मास्क बना रही हैं। खाध्य नियंत्रण ने अवसरवादी मंहगाई को रोक रखा है। योजना बनाने वालों को जीडीपी पर असर के लिए अलग से विचार करने को कहा गया है। वे कहते हैं- जनता को हर हाल में मुनाफे से ज्यादा तरजीह देनी होगी। 

त्रिमहाद्वीप सामाजिक अनुसंधान संस्थान में, हम वैश्विक स्वास्थ संकट के साथ-साथ समाजवादियों की असीम प्रतिबद्धता, समाजवादी राज्यों- चिकित्सा पर एकता के बारे में चिंतन-मनन कर रहे हैं। यह सवाल तब उठा था जब बोलिविया और ब्राज़ील दोनों ने क्यूबन डॉक्टर्स को निर्वासित कर दिया था। जिनमें से ज़्यादातर इन देशों के औध्योगिक और खेत मजदूरों के लिए चिकत्सा सुविधाओं का आधार थे। 2014 में, टाइम पत्रिका ने इबोला से लड़ने वाले को परसन ऑफ द इयर (साल का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति) चुना था। जब इबोला के प्रकोप ने पश्चिमी अफ्रीका को मौत की चपेट में लिया, तब क्यूबा के चिकित्सक समुदाय ने यहाँ जाकर बीमारी से लड़ने का निर्णय लिया। सबसे बड़े महाद्वीप-पश्चिमी अफ्रीका में क्यूबा से 256 नर्स और चिकित्सक आए। प्रतिबद्धता इतनी ज्यादा थी कि डॉ फेलिक्स बाएज, एक क्यूबन डॉक्टर जो इबोला से संक्रमित हो गए, स्विस अस्पताल में उनकी हालत में सुधार आया, फिर वो वापिस क्यूबा आ गए, फिर भी उनकी इच्छा थी कि वह सिइरा लियोने (पश्चिमी अफ्रीका का एक देश) जाकर अपने साथियों की मदद करें। एक महीने बाद वह पोर्ट लोको में वापिस काम पर आ गए। यह सिइरा लियोने की राजधानी फ्रीटाउन से दो घंटे की दूरी पर है।
डॉ हु मिंग, वुहान पुलमोनरी अस्पताल के आईसीयू के निदेशक शुरुआत में ही कोरोना वाइरस से संक्रमित हो गये थे। जैसे ही वह स्वस्थ हुए डॉ फेलिक्स बाएज की तरह डॉ हु मिंग अपने वार्ड में वापिस आ गए। वहाँ ऐसे मरीज हैं जिन्हें इसी तरह के समाजवादी डॉक्टरों की जरूरत है।

तो भी, सितंबर 2019 में अमरीका ने क्यूबा के ऊपर डॉक्टरों की मानव तस्करी का आरोप लगाया और ब्राज़ील के जाइर बोलसैनारो ने ब्राज़ील में कार्यरत क्यूबा के 8300 चिकित्सक कर्मियों को गुलाम मजदूर कहा। यह आपको बोलसैनारो और क्यूबन डॉक्टर के बीच दुनिया को देखने के नजरिए में फर्क के बारे में बखूबी बताता है। बोलसैनारो क्यूबन डॉक्टर की समाजवादी प्रतिबद्धता को गुलामी के रूप में देखता है।
यही कारण है कि हमारे जन लघु चिकित्सा केंद्र (पीपलस पोलीक्लीनिक्स) तेलगु कम्युनिस्ट आंदोलन (फरवरी 2020) की एक पहल लोगों की चिकत्सा में एक शानदार प्रयोग है। भारत में ये लघु चिकित्सा केंद्र उन डॉक्टरों द्वारा चलाये जाते हैं जो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं और जो खुद मुनाफा कमाने के बजाय लोगों की सेवा के लिए काम करते हैं। जब ब्रिटिश साम्राज्य का पतन हुआ तब से ही चिकित्साकर्मियों की भारी जरूरत रही है। ब्रिटिश शासन के  बाद भारत में चिकित्सा व्यवस्था न के बराबर थी। हर 7200 भारतियों पर एक डॉक्टर हुआ करता था। भारत ने आजादी तो हासिल कर ली थी पर साक्षारता दर 11 फीसदी थी और गरीबी का स्तर अचरज में डाल देने वाला था। स्वतन्त्रता वास्तविकता से ज्यादा एक तमन्ना थी।
भारत के तेलगु भाषी क्षेत्र (अब आबादी 8.6 करोड़) में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े हुए डॉक्टरों ने क्लीनिक और अस्पताल बनाए। खास तौर पर नेल्लोर का जन लघु चिकित्सा केंद्र- यह किसान और मजदूर वर्ग को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए तैयार किया गया। इस क्लीनिक ने न केवल चिकित्सा सुविधाएं दीं बल्कि छोटे क़सबों और दूर-दराज इलाकों में जन स्वास्थ सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चिकित्सक कर्मियों को प्रशिक्षित भी किया। लघु चिकित्सा केंद्र स्थापित करने वालों में से एक डॉक्टर ने कहा कि वह पूर्णकालिक क्रांतिकारी बनना चाहता है तो कम्युनिस्ट नेता पी सुंदरय्या ने उनसे कहा कि जनता का डॉक्टर होना अपने आप में क्रांतिकारी काम है। यह वामपंथ के साथ जुड़े चिकित्सक कर्मियों को एक मौका उपलब्ध कराता है जो प्रसिद्धि से दूर रहकर काम करना चाहते हैं। और उनके लिए भी जो स्वास्थ सुविधाओं के निजीकरण की ओर बढ़ते रुझान को रोकना चाहते हैं। डॉ ज़्हांग वेंहोंग, डॉ फेलिक्स बाएज और डॉ पीवी रामचन्द्र रेड्डी एक प्रेरणादायक प्रतिबद्धता साझा करते हैं।
वास्तव में डॉ नजिहा अल डुलाइमि और उनमें कोई अंतर नहीं है। डॉ अल डुलाइमि इराक़ी कम्युनिस्ट पार्टी और इराक़ी महिला लीग की नेता हैं। डॉ अल डुलाइमि ने बगदाद की मेडिकल कॉलेज से 1940 में पढ़ाई की। जनवरी 1948 में एंग्लो-इराक संधि के नवीनीकरण के खिलाफ साम्राज्यवादी आंदोलन में जिसमें अल वातबा (बगदाद, जनवरी 1948 में हुआ एक जनांदोलन) भी शामिल है, वह शामिल हो गयी। उन्होंने कालेज से स्नातक की उपाधि लेने के बाद रॉयल अस्पताले में काम किया फिर कार्ख अस्पताल में काम करने चली गईं। डॉ अल डुलाइमि बगदाद ने शवाकह जिले में निशुल्क चिकित्सा केंद्र स्थापित किए। उनके कम्युनिस्ट क्रिया-कलापों के चलते अधिकारियों ने उन्हें देश भर में स्थानांतरित किया- सुलेमानियाह में, कर्बला में और उमराह में। हर जगह उन्होंने गरीबों के लिए निशुल्क चिकित्सालय बनाए।  डॉ अल डुलाइमि ने बेज़ेल बैक्टीरिया (यव) जो बच्चों को तेजी से अपने प्रकोप में लेता है, को मिटाने के लिए दक्षिणी इराक में काम किया। 1958 की क्रान्ति के बाद, डॉ अल डुलाइमि को नगर निगम की मंत्री बनाया गया। उन्होंने बगदाद के थावरा जिले के निर्माण में और 1959 के नारीवादी नागरिक मामलों के कानून में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब बाथ (बगदाद की राजनैतिक पार्टी) सत्ता में आई तो उसने डॉ अल डुलाइमि को देश निकाला दे दिया। लेकिन अपने अंतिम दिन तक वह जनता की डॉक्टर और कम्युनिस्ट बनी रहीं। अगर आज डॉ अल डुलाइमि जिंदा होतीं तो वे वुहान और हूबेई प्रांत के दूसरे हिस्सों में कोरोना वाइरस को हराने में मदद करने के लिए जाने वाले डॉक्टर और नर्स के साथ चल पड़ी होती।


अगस्त 1960 में चे ग्वेरा ने हवाना में क्रांतिकारी चिकित्सा के ऊपर एक भाषण दिया था। उन्होंने बताया कि उनके भाषण के कुछ महीने पहले डॉक्टरों के एक समूह ने देश के भीतरी इलाकों में तब तक जाने के लिए मना कर दिया था जब तक उनको मोटी तनख्वाह न दी जाय। चे ने कहा यह बड़ी साधारण बात है। यह पूंजीवादी तर्क का कमाल है जो हमारी मानवीय संवेदना में रुकावट डालता है।  क्या हुआ यदि क्रांतिकारी क्यूबा ने छात्रों को डॉक्टर बनाने के लिए कोई फीस नहीं ली, लेकिन सामाजिक संपत्ति ने नौजवानों को डॉक्टर बनने के योग्य किया। मान लो हम कहें जादू से दो या तीन सौ किसान प्रकट हों, विश्वविदध्यालय के हाल से तो क्या ऐसा हो जाएगा? 1958 में क्यूबा के पास 1051 लोगों के ऊपर एक डॉक्टर था। 1953 में तानाशाह ने हवाना मेडिकल स्कूल बंद कर दिया था। इसे 1959 में 161 प्रोफेसर की जगह केवल 23 प्रोफेसर के दम पर शुरू किया गया (बाकी डॉक्टर अमरीका भाग गए थे)। क्रान्ति ने किसानो की ओर रुख किया, जिन्होंने चिकित्सा का अध्ययन किया और तब एक बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ दुनिया के दूसरे हिस्सों में क्यूबा के चिकित्सा कौशल को लाने के लिए मिशन पर गए। आज क्यूबा में हर 121 लोगों पर एक डॉक्टर है। अमरीका में 384 लोगों पर एक डॉक्टर है। ये क्यूबा के चिकित्साकर्मी, भारत की लघु चिकित्सा केंद्र के चिकित्साकर्मियों और चीन के चिकित्साकर्मियों की तरह हैं। जैसा कि चे ने कहा था- “एकजुटता का नया हथियार”। यह समय एक होने का है न कि लांछन लगाने का।
गरम जोशी से
विजय प्रसाद
(यह अनुवाद राजेश कुमार ने किया है।)

बुधवार, 24 जुलाई 2019

विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कोढ़ भारत में फूटने के कगार पर


–– विक्रम प्रताप
बाढ़ की सम्भावनाएँ सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं।
चीड़वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं।
                                      –– दुष्यंत कुमार

भारत की अर्थव्यवस्था आज इतनी खोखली हो गयी है कि किसी भी दिन इसमें भूचाल आ सकता है। बैंकों की बदहाली, बहुत भारी व्यापार घाटा, रुपये का अवमूल्यन, आसमान छूती महँगाई, बढ़ती बेरोजगारी, आदि इस संकट की अभिव्यक्तियाँ हैं लेकिन इस संकट की जड़ें अमरीका से शुरू हुए विश्वव्यापी संकट में हैं। वह 2008 की वैश्विक मन्दी का दौर था, जब विकसित देश मन्दी की मार से बेहाल थे।

2008 में आयी विश्वव्यापी मन्दी को दस साल से अधिक समय हो गया। उस समय मन्दी के जिस काले साये ने दुनिया की अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया था, वह कभी दूर नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था में ऊपरी तौर पर दिखायी देने वाली तेजी बादलों के बीच यहाँवहाँ बिजली की चमक बनकर रह गयी। ऊपरी चमकदमक के नीचे मन्दी हमेशा ही मौजूद रही और यह न केवल दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों की परेशानी का सबब बनी रही, बल्कि लगभग सभी देशों में इसने कहर बरपाये। लगभग हर इनसान की जिन्दगी में विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा, बस उन लोगों को छोड़कर जो इस व्यवस्था में सबसे खास जगह रखते हैं। लोगों की आमदनी घट गयी। नौकरियाँ छिन गयीं। भविष्य अंधकारमय हो गया। जिन्दगी के प्रति उम्मीदें धूलधूसरित हो गयीं। इस मन्दी ने इनसान की जिन्दगी के हर पहलू पर बुरा प्रभाव डाला। इन सबके बावजूद आज भी बड़ी संख्या में लोग इस भयावह मन्दी से अनजान हैं। भारत में इसका प्रभाव भारी मुसीबत लाने वाला साबित हुआ। हाल ही में जेट एयरवेज की तबाही से 20 हजार लोगों की नौकरियाँ एक झटके में छिन गयीं। वे सड़कों पर भूखों मरने के लिए धकेल दिये गये। लेकिन लोग नहीं जानते कि ऐसा क्यों हुआ ? भारत में लोग किस्मत को कोसकर चुप हो जाते हैं, अमरीका और यूरोप में धरनेप्रदर्शन करके।

आखिर 2008 में हुआ क्या था ? बात इतनी पुरानी हो गयी है कि 2008 में जो बच्चे निश्चिंत होकर गलियों में खेलकूद रहे थे, वे आज नौकरी की तलाश में मारेमारे फिर रहे हैं। उनके माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयी हैं। ढेर सारे लोग जो 2008 की घटना के गवाह हैं, उनके भी मनस पटल से स्मृति की रेखाएँ धुँधली होती जा रही हैं। अधिकांश लोग तो जिन्दगी की जद्दोजहद में इतने खो गये हैं कि उन्हें फुर्सत नहीं, कि मुड़कर पीछे देखें। फिर भी वह एक भयावह घटना थी। 2008 में दुनिया की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा भूचाल आया था।

2008 के मुख्य झटके से एक साल पहले कई दैत्याकार अमरीकी कम्पनियाँ घाटे और तालाबन्दी के कगार पर पहुँच गयी थीं। डॉलर के मूल्य में गिरावट और सब प्राइम कर्ज संकट के कारण सिटी बैंक, मेरिल लिंच और बीयर स्टर्न जैसे कई बड़े अमरीकी बैंकों को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। 2007 की तीसरी तिमाही में दैत्याकार अमरीकी निगमों के मुनाफे में 77,200 करोड़ रुपये की गिरावट आयी थी जबकि उनकी घरेलू कमाई में 1,68,800 करोड़ रुपये की कमी देखी गयी थी। 2008 की पहली तिमाही में अमरीका के सिटी बैंक को 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। इस बैंक के 200 वर्षों के इतिहास में इतना बड़ा घाटा पहली बार हुआ था। मई 2008 में बीयर स्टर्न बैंक की तबाही से अमरीकी अर्थव्यवस्था में अफरातफरी मच गयी थी। सितम्बर 2008 में दो बड़े निवेश बैंकों लेह्मन ब्रदर्स और मेरिल लिंच तथा अमरीकी इण्टरनेशनल ग्रुप (एआईजी) के डूबने की धमक पूरी दुनिया में महसूस की गयी। यहाँ तक कि मुम्बई शेयर बाजार भी धड़ाम से गिर गया। इन तीनों बैंकों की हैसियत बीयर स्टर्न से कई गुना अधिक थी। यह मन्दी 1929 के बाद की सबसे बड़ी मन्दी थी। 158 साल पुराने अमरीका के चैथे बड़े निवेश बैंक लेह्मन ब्रदर्स को अमरीकी रिजर्व बैंक भी डूबने से नहीं बचा पाया। उस पर कुल 2.82 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। लेह्मन ब्रदर्स अपनी 94 फीसदी सम्पत्ति गँवाकर दिवालिया हो गया। बैंक के 25,000 कर्मचारी बेरोजगार हो गये। इन कर्मचारियों के पास कम्पनी के एक तिहाई शेयर थे जिनका मोल कौड़ी के बराबर भी नहीं रह गया। इसके तुरन्त बाद अमरीका के तीसरे सबसे बड़े बैंक मेरिल लिंच और बीमा कम्पनी एआईजी की बर्बादी ने संकट को एक बिल्कुल ही नये और खतरनाक स्तर पर ला दिया।

तत्काल यह संकट कई देशों में फैल गया। जापान के मित्सुबिसी यूएफजे वित्तीय समूह को 7.7 फीसदी और ऑस्टेªलिया के बेवकॉक और ब्राउन को सबसे ज्यादा 34 फीसदी का नुकसान हुआ। अमरीका के एआईजी के क्रेडिट में 61 फीसदी की गिरावट आयी। इस संकट से भारत भी अछूता नहीं रहा। आईसीआईसीआई बैंक को भारत में लगभग 150 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और पंजाब नेशनल बैंक के 50.50 लाख डॉलर लेह्मन ब्रदर्स में निवेश के कारण डूब गये। लेह्मन ब्रदर्स की भारतीय शाखा में काम कर रहे 2,500 कर्मचारियों की नौकरी रातोंरात चली गयी। लेह्मन ब्रदर्स में भारतीय आईटी कम्पनियोंµटाटा कन्सल्टेन्सी, सत्यम् कम्प्यूटर्स और विप्रो का सालाना 1,600 करोड़ रुपये का कारोबार होता था जो खत्म हो गया। यह तो महज शुरुआत थी।

अभी दुनिया की अर्थव्यवस्था चैन की साँस भी नहीं लेेेने पायी थी कि 2010 की शुरुआत में मन्दी फिर आ धमकी। इस तरह अर्थव्यवस्था के जल्द दुबारा मन्दी में फँसने को द्विआवर्ती मन्दी कहा गया। उसी साल यूनान में सम्प्रभु कर्ज संकट शुरू हो गया था। इसके चलते यूनान की सरकार ने कई जनविरोधी कदम उठाये, जैसे–– मजदूरों की छँटनी, वेतनभत्ते में कटौती, शराब, सिगरेट, ईंधन और विलासिता की अन्य वस्तुओं पर टैक्स में वृद्धि, सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाकर 61 से 65 वर्ष करना और 6000 में से 4000 सरकारी कम्पनियों का निजीकरण। इन उपायों को अपनाते ही यूनान में जनसंघर्ष फूट पड़ा था। मई 2010 में स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली और नीदरलैण्ड की विकास दर क्रमश: 0.1, 0.2, 0.1, 0.5 और 0.2 प्रतिशत थी। 2009 में पुर्तगाल का बजट घाटा जीडीपी का 9.4 प्रतिशत था। पुर्तगाल ने भी वेतन कटौती और छँटनी की कार्रवाई को सही ठहराया था। दूसरी ओर स्पेन के सम्पत्ति बाजार में तब आयरलैण्ड की तरह ही विस्फोट हो गया, जब वैश्विक वित्तीय संकट ने आघात किया। इससे स्पेन लगभग दो साल की गहरी मन्दी में डूब गया, जिससे सरकारी खजाने पर बहुत भारी दबाव पड़ा था।

तब से यह सिलसिला आज तक चल रहा है। किसी न किसी देश में मन्दी का लाइलाज कोढ़ कभी न कभी फूट ही पड़ता है। 2011 में दो बड़ी घटनाएँ हुर्इं–– वॉल स्ट्रीट पर कब्जा आन्दोलन और अमरीका का कर्ज सीलिंग संकट। उस साल अमरीका का सरकारी कर्ज 14,00,000 करोड़ डॉलर को पार कर गया था। यह राशि भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद के आठ गुने से भी ज्यादा थी। इसके चार मुख्य कारण थे–– बहुराष्ट्रीय निगमों और अमीरों को टैक्स में भारी छूट देना, इराक और अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध में भारी खर्च, 2008 के बाद वैश्विक मन्दी में बर्बाद हुए बड़े निगमों, बैंकों, इन्श्योरेन्स कम्पनियों और आर्थिक व्यवस्था को बचाने के लिए फेडरल बैंक द्वारा दी गयी बड़ी वित्तीय सहायता और लगातार संकट के बावजूद कर्ज लेकर उपभोग के ऊँचे स्तर को बनाये रखना।

मन्दी से लड़ने के नाम पर अमरीकी सरकार सुधारों का जाप करते हुए समाज कल्याण के कामों में लगातार कटौती करती जा रही थी और पूँजीपति कर्मचारियों की छँटनी में लगे हुए थे। नतीजन, वहाँ काम करने की उम्र का हर छठा आदमी बेरोजगार हो गया था। लोग अपने सगे सम्बन्धियों या दोस्तों के रहमोकरम पर जिन्दा थे और उनके मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश सुलगने लगा था। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा आन्दोलनमें जनता की व्यापक हिस्सेदारी के पीछे यही कारण था। इस आन्दोलन का नारा था–– 99 प्रतिशत जनता की ओर से 1 प्रतिशत पूँजीपतियों और सट्टेबाजों को चुनौती। यह आन्दोलन लगभग 84 देशों में फैल गया। कल्याणकारी योजनाओें में कटौती, विश्वव्यापी मन्दी, बेरोजगारी और महँगाई के खिलाफ दुनिया भर की जनता सड़कों पर उतर आयी थी। लेकिन परिवर्तनकारी मनोगत शक्तियों के अभाव में दुनिया में कोई आमूलचूल परिवर्तन किये बगैर ही वह स्वत:स्फूर्त आन्दोलन इतिहास के पन्नों में खो गया।

भारत पर मन्दी का कहर

रुपये का अवमूल्यन अर्थव्यवस्था की सेहत मापने का एक आसान नुस्खा है। 1947 के बाद कई बार रुपये का अवमूल्यन हो चुका है लेकिन 1991 के बाद इसमें काफी तेजी आयी। नीचे की तालिका देखिये––

तालिका : 1 डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत
वर्ष          रुपये की कीमत
1947                  1.00
1966                7.50
1990                17.50
1995                34.96
2010 (1 जून) 46.69
2012 (1 जून) 55.92
2016 (1 जून) 67.35
2019 (2 जून) 69.57
स्रोत : रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया

तालिका से साफ पता चलता है कि 1990 से 1995 के बीच रुपये का लगभग सौ प्रतिशत तक अवमूल्यन हो गया था। यह भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़े संकट का द्योतक था। यह वही दौर था, जब भारत के शासक वर्ग नेे आत्मनिर्भर विकास को तिलांजलि देकर वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को स्वीकार कर लिया था। रुपये का अवमूल्यन करना भी इन नीतियों में शामिल था। इन नीतियों के जरिये भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था से नत्थी कर दिया गया। लेकिन जनता के भारी विरोध के चलते इन्हें टुकड़ेटुकड़े में लागू किया गया। इसके लिए तीन दशक का लम्बा समय लिया गया और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। इन नीतियों ने देश के विकास की दिशा और दशा बदल दी। 2008 की वैश्विक मन्दी देर से ही सही, भारत पर अपना असर दिखाने लगी। 2010 में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 46.69 थी, जो गिरकर महज दो साल बाद 55.92 पर आ गयी। यह गिरावट आज भी जारी है, जिसका नतीजा है कि इस साल जून की शुरुआत में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 69.57 पर आ गयी। यानी पिछले आठ सालों में लगभग 49 प्रतिशत की गिरावट। यह तस्वीर और भी भयावह है क्योंकि इसी दौरान खुद डॉलर की कीमत में भी गिरावट हुई है। अगर क्रय शक्ति की क्षमता के हिसाब से देखा जाये तो रुपये में इस आँकड़े से भी बड़ी गिरावट हुई है।

 2010 में मासिक व्यापार घाटा लगभग 10 अरब डॉलर था जो आज बढ़कर 15 अरब डॉलर से ऊपर चला गया है। यानी निर्यात के मुकाबले हर महीने 15 अरब डॉलर से अधिक का आयात हो रहा है। इन सबके बावजूद सरकार मन्दी की क्रूर सच्चाइयों पर पर्दा डाल रही है।

हर बार जब घरेलू बाजार संकटग्रस्त होता है तो विदेशी निवेशक अपनी पूँजी निकालकर उड़नछू हो जाते हैं। कम्प्यूटर और इन्टरनेट की तीव्रता इन मौकापरस्तों का काम आसान कर देती है। एस एण्ड पी रेटिंग एजेंसी ने जुलाई 2018 में ही आगाह कर दिया था कि भारत पर मुद्रा बर्हिगमन का दबाव बढ़ता जा रहा है। 2018 में ही भारत के शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशक 1 लाख करोड़ रुपये की पूँजी लेकर फरार हो गये जबकि 2017 में उन्होंने शेयर बाजार में कुल 2 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया था। 2018 में मुद्रा बर्हिगमन पिछले 10 सालों में सबसे अधिक रहा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था और अधिक संकटग्रस्त हो गयी।

यह उन उपायों का नतीजा है, जिनके चलते सरकार ने मुनाफे के भूखे इन वैश्विक भेड़ियों (विदेशी संस्थागत निवेशकों) के लिए अर्थव्यवस्था के कपाट पूरी तरह खोल दिये थे। इन्हें लुभाने केे लिए सरकार कई जनविरोधी कदम उठा चुकी है, जैसे–– रहेसहे श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया जो श्रमिकों के हितों की रक्षा करते थे। इससे देशीविदेशी पूँजीपतियों के लिए श्रमिकांे का शोषण और आसान हो गया। जनवरी 2018 में एकल ब्रांड के खुदरा व्यापार और रीयल स्टेट ब्रोकिंग सर्विस में 100 प्रतिशत तथा विमानन में 49 प्रतिशत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूट दे दी गयी। पहले दो क्षेत्रों में एफडीआई को स्वचालित मार्ग (यह सरकार के नियंत्रण मंे नहीं होगा।) से आने की अनुमति दी गयी जबकि विमानन में एफडीआई सरकार के नियंत्रण मंे रहेगी। श्रमिक और व्यापार संगठनों ने सरकार के इन कदमों का भारी विरोध किया था।

एकल ब्रांड के खुदरा व्यापार में 100 प्रतिशत एफडीआई आमन्त्रित करने से डिकैथलान जैसी एकल ब्रांड की खुदरा कम्पनियों का बाजार पर कब्जा होता जा रहा है। वित्तवर्ष 2018 में फ्रांसिसी कम्पनी डिकैथलान ने भारत में 1278 करोड़ रुपये की कमायी की। यह एडिडास (1157 करोड़), पुमा (1132 करोड़), नाइक (828 करोड़) आदि कम्पनियों को पीछे छोड़ते हुए दूसरे नम्बर पर आ गयी है। डिकैथलान के भारत में 70 विशालकाय स्टोर हैं जिसके जरिये वह खेल के जूते से लेकर पर्वतारोहण तक के सभी सामान बेचती है। पहले नम्बर पर चीन की इलेक्ट्रोनिक कम्पनी शाओमी है जिसका मुख्यालय बीजिंग में है। 2018 में शाओमी ने भारत में अपने 79 विशालकाय स्टोरों और ऑनलाइन बिक्री के जरिये 23,060 करोड़ रुपये की कमायी की। यह पिछले साल की कमायी से 175 प्रतिशत अधिक है। इसने अपने रेडमी फोन के माध्यम से बाजार पर दबदबा कायम कर लिया है। इन कम्पनियों की सबसे खास बात है कि ये उच्च शिक्षित नौजवानों को मजदूरी पर रखती हैं और उनसे बहुत कम पैसों पर काम कराती हैं। मजदूरों के हित में श्रमकानून न होने के चलते ये मजदूरों का बेइन्तहा शोषण करती हैं और अकूत मुनाफा कमाती हैं। ये खुदरा बाजार के बड़े हिस्से पर अपना कब्जा जमाती जा रही हैं। इससे छोटे खुदरा व्यापारियों की तबाही बड़े पैमाने पर शुरू हो गयी है। उन्हें व्यापार में घाटा झेलना पड़ रहा है क्योंकि उनकी दुकान पर ग्राहक नदारद हैं। एफडीआई आमन्त्रित करके थोड़ी देर के लिए राहत महसूस की जा सकती थी। लेकिन इन उपायों से मन्दी का संकट तो हल होना नहीं, जबकि मेहनतकश जनता की हालत और खराब होती चली जा रही है।

मौजूदा सरकार के पिछले कार्यकाल में सरकार पर कुल कर्ज 49 प्रतिशत तक बढ़ गया। यह 2014 में 54,90,763 करोड़ रुपये था जो जनवरी 2019 में बढ़कर 82,03,253 करोड़ रुपये हो गया था। वित्त मंत्रालय की वेबसाइट पर दिये आँकड़े के अनुसार दिसम्बर 2018 को भारत पर कुल विदेशी कर्ज 35,91,667 करोड़ रुपये था। इसमें 81 प्रतिशत लम्बी अवधि और मात्र 19 प्रतिशत छोटी अवधि के कर्ज थे। जबकि अप्रैल 2019 में विदेशी मुद्रा भण्डार 26,90,443 करोड़ रुपये था। अगर विदेशी कर्ज और विदेशी मुद्रा भंडार की तुलना करें तो स्थिति बहुत निराशाजनक नजर आती है। इसका मतलब कुल प्रभावी मुद्रा भण्डार नकारात्मक हो चुका है।

2008 की मन्दी के समय देश का शासक वर्ग इस खुशी से मदमस्त था कि लेह्मन ब्रदर्स, एआईजी जैसे अमरीकी दैत्याकार बैंकों की बरबादी के बावजूद भारत का बैंकिंग क्षेत्र सुरक्षित है। लेकिन आज दस साल बाद ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। आज चारों ओर बैंकिंग क्षेत्र की तबाही की चर्चाएँ चल रही हैं। देश में बैंक से सरोकार रखने वाला शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे यह पता न हो कि भारत का बैंकिंग क्षेत्र भारी संकट से गुजर रहा है। 2017–18 में पंजाब नेशनल बैंक का कुल 85,369 करोड़ रुपया बट्टा खाते (एनपीए) में डूब गया। रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय ने 2017–18 के एक वित्त वर्ष में बैंकों के कुल नुकसान की गणना की जो 2.7 लाख करोड़ रुपये था। यह पिछले वित्त वर्ष से 57 प्रतिशत अधिक था। पिछले वित्त वर्ष के अन्त तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 8.95 लाख करोड़ रुपये था। यह राशि भारत सरकार के शिक्षा बजट से तीन गुना अधिक है।

भारत में जारी मन्दी ने बैंकिंग क्षेत्र को बेहाल कर दिया है। ऊपरी तौर पर देखने से यह लग सकता है कि बैंकों में जमा जनता की पूँजी की बन्दरबाँट के चलते यह संकट पैदा हुआ है, जिसमें सरकार ने दिल खोलकर बड़े पूँजीपतियों की झोली भरी। लेकिन यह आंशिक सच्चाई है। वास्तव में यह संकट उन नीतियों का ही जारी परिणाम है जिसकी शुरुआत 1990–91 में मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण के नाम पर की गयी थी।

मार्च 2017 में एसबीआई का कुल एनपीए 58,277 करोड़ रुपये था। इस नुकसान को शेयर बाजार में लगी पूँजी से जोड़कर देखिए। हम सभी जानते हैं कि 2008 की मन्दी में एसबीआई की पूँजी शेयर बाजार में डूब गयी थी। लेकिन उस समय खतरा बड़ा नहीं था क्योंकि शेयर बाजार में एसबीआई की हिस्सेदारी कम थी। उस समय सरकार ने इस बात के लिए खुद को शाबाशी दी थी। लेकिन उस सबक को भुला दिया गया और सटोरिया पूँजी में बैंकों की बढ़ती भागीदारी ने आखिरकार एसबीआई के साथ लगभग सभी सार्वजनिक बैंकों को बरबादी के कगार पर ला दिया। परदे के पीछे छिपा सच यह है कि सरकार ने लोगों की बचत, पेंशन फंड और बैंकों में जमा अन्य राशियों को शेयर बाजार में लगा दिया है। मन्दी के गहराते बादलों के बीच शेयर बाजार कभी भी धराशायी हो सकता है, जिससे बैंकों की कुल पूँजी के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है। सरकार और देशीविदेशी पूँजीपतियों ने आपसी साँठगाँठ से जो दलदल तैयार किया है, पूरी अर्थव्यवस्था उसमें तिरोहित होने की ओर बढ़ रही है।

संकट से बचने के लिए तेज वृद्धि दर, शेयर और मुद्रा बाजार में जोखिम रहित ऊँचे मुनाफे की गारण्टी तथा देश की रहीसही सार्वजनिक सम्पत्ति को कौड़ियों के मोल लुटाकर विदेशी निवेशकों को दुबारा आकर्षित करने की योजना बनायी गयी और उसे लागू किया गया। इस तरह देश की बहुसंख्यक जनता की चिन्ता को दरकिनार करके वित्तीय कम्पनियों के चरणों में सिर झुका दिया गया। आज पूरे देश में पूँजी की नंगी लूट चल रही है। पूँजी ही आज सरकार का ईमान और भगवान है। लेकिन वह किसी के काबू में आने वाली नहीं क्योंकि नवउदारवादी दौर में पूँजी का चरित्र आवारा बन गया है। वह लम्पटई पर उतर आयी है। अपने सबसे पक्के आशिक यानी पूँजीपति वर्ग के साथ ही बेवफाई कर रही है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत एक धीमी लेकिन चिरकालिक मन्दी के भँवर में फँस गया है। विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार से उड़नछू होते रहते हैं। विदेशी निवेश की बैसाखी पर निर्भर देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती रहती है। सरकार अर्थव्यवस्था की हर लड़खड़ाहट के बाद अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों से कहीं अधिक शर्मनाक शर्तों पर बँधती चली जा रही है।

दिसम्बर 2011 के देशविदेशमंे मैंने वैश्विक मन्दी : वित्तीय पूँजी की लाइलाज बीमारीलेख में जो बातें वैश्विक मन्दी और अमरीका के बारे में लिखी थी, वह आज के भारत के बारे में हुबहू लागू होती हैं।

पिछले कई वर्षों से अमरीका और वैश्विक अर्थव्यवस्था का रुझान दो दिशाओं में बहुत तेजी से बढ़ा है। कर्ज लेकर देश की अर्थव्यवस्था चलाना और दूसरा वित्तीय पूँजी के दानव का पैदा होना, बढ़ना और धरती को विनाश की ओर ले जाना। एक समय था जब विकास की दिशा में अग्रसर किसी देश की अर्थव्यवस्था पर छोटी अवधि के कर्ज ही विकास की चालक शक्ति हुआ करते थे, लेकिन अब कर्ज संकट का यह भस्मासुर अपने ही जनक को मारने पर तुला है। कर्ज संकट और वित्तीय पूँजी में वृद्धि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 1970 के दशक से नयेनये और उत्तरोत्तर जटिल वित्तीय उपकरण जैसेफ्यूचर्स, आपसन्स और स्वैप, शेयर बाजार में उतरते गये। ये उपकरण खिलाड़ियों को जोखिम रहित अधिक मुनाफे का प्रलोभन देते हैं। लेकिन असली अर्थव्यवस्था के बुलबुले के नीचे फैले इस विशालकाय विस्फोटक को जितना ही अधिक सुरक्षित खोल पहनाकर इसके वजन को बढ़ाया गया, यह भविष्य के लिए उतना ही ज्यादा खतरनाक होता गया।

“––– वित्तीय पूँजी ने दुनियाभर में अमीरीगरीबी की खाई और कंगालीकरण को बढ़ाया है। परजीवी और उपभोक्तावादी सांस्कृतिक मूल्यमान्यताओं से मानवीय जिन्दगी की गरिमा को नष्ट किया है। इनमें अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण की ओर रुझान सबसे अधिक चिन्ता का विषय है। अब निवेशक माल उत्पादन में निवेश के बजाय पैसे से पैसा बनाना चाहते हैं, क्योंकि माल उत्पादन करने वाली असली अर्थव्यवस्था ठहरावग्रस्त हो चुकी है। लेकिन बिना माल उत्पादन के हमारा समाज एक दिन भी आगे नहीं बढ़ सकता। इसके चलते समाज लगातार भौतिक अवनति की ओर अग्रसर है जिसका नतीजा पूरी दुनिया आर्थिक मन्दी के रूप में झेल रही है। वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था अब समाज को आगे गति देने में खुद को अक्षम पा रही है।

“––– आज अतिरिक्त पूँजी उद्योग में न लगकर वित्तीय क्षेत्र में सट्टेबाजी के लिए उपयोग की जा रही है, जो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को संकटग्रस्त कर रही है। इसलिए आज मजदूरों का शोषण करके मुनाफे के जरिये पूँजी संचय को जायज नहीं ठहराया जा सकता। यह नैतिक आधार पर ही नहीं बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी गलत कदम है, क्योंकि ऐसी स्थिति मंे मजदूरों की क्रय शक्ति गिरने से बाजार में माँग घट जाएगी और संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था पहले से भी अधिक सिकुड़ जाएगी। इस तरह आज पूँजीवाद का यह आत्मघाती दुश्चक्र दुनिया की भौतिक प्रगति में सहायक न होकर उसे पतन के गर्त में ले जा रहा है।

पेट्रोल, डीजल, कुकिंग गैस और उर्वरकों जैसे बुनियादी मालों की कीमतें बढ़ने से अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में महँगाई बढ़ गयी। जिस अनुपात में महँगाई बढ़ी उसी अनुपात मंे जनता की क्रय शक्ति गिर गयी। इससे जनता की माली हालत खराब होती चली गयी। इससे साफ पता चलता है कि देश की जनता की कीमत पर उच्च वर्ग के मुट्ठीभर लोगों का विकास किया गया। पूँजीवादी विकास का यह नवउदारवादी मॉडल भारी असमानता पैदा करने वाला साबित हुआ है। इससे अमीर और अमीर होते जा रहे हैं जबकि गरीब और अधिक गरीब। जब भारतीय अर्थव्यवस्था छलांग लगाकर बढ़ रही थी, उस समय भी रोजगार में वृद्धि न के बराबर थी। आज कृषि पर निर्भर देश की आधी जनता भयानक गरीबी में जीवन बसर कर रही है। दिल्ली से बहने वाली विकास की गंगा का पानी उस तक नहीं पहुँचता। वह अर्द्धबर्बर अवस्था में जीने को अभिशप्त है। सेवा क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी और साफ्टवेयर से जुड़े अंग्रेजीभाषी कर्मचारियों, मीडियाकर्मी, नेताअभिनेता और क्रिकेटरों की आमदनी काफी तेजी से बढ़ी है। लेकिन दूसरी ओर सेवा क्षेत्र के अधिकांश छोटे व्यवसायी, जैसे–– सैलून, होटेल और रेस्त्रां के मजदूर, बिजली, गैस और जल आपूर्ति से जुड़े मजदूर, निजी शिक्षण संस्थानों के ठेका शिक्षक और कर्मचारी, आदि की जिन्दगी दिनदिन आर्थिक तबाही की ओर जा रही है।

एकांगी विकास का नतीजा है कि एक ओर अरबपतियों की संख्या में रिकार्ड उछाल आ रहा है तो दूसरी ओर मेहनतकश वर्ग की थाली से अनाज हर बीते दिन कम होता जा रहा है। ऐसी हालत में देश के मुट्ठीभर अरबपतियों और 10–12 प्रतिशत मध्यम वर्ग को साथ लेकर चलने वाले विकास का संकटग्रस्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का है कि इतने दिनों तक इस खोखले विकास का गुब्बारा फूटा क्यों नहीं।

मन्दी की खबरों से बाजार में अफरातफरी न मचे और सरकार में जनता का विश्वास बना रहे, इसके लिए सरकार मन्दी की भयावह सच्चाई को छिपा रही है। वह इस बात को भी छिपा रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाही के कगार पर पहुँच गयी है। इस काम में मुख्य धारा की मीडिया ने सरकार का पूरा साथ दिया। सरकार और मीडिया अपने मंसूबों में कामयाब है क्योंकि हर बार संकट को टालने के लिए जनता पर बोझ बढ़ दिया जा रहा है। तमाम आन्दोलनों के बावजूद जनता अपने दम पर प्रतिरोध खड़ा करने में अभी तक सफल नहीं हो पा रही है। बहुसंख्यक जनता अपनी खराब होती हालत को भाग्य का लेखा मानकर चुप रह जाती है। इसके चलते शासक वर्ग की निर्बाध लूट जारी है और वह संकट का बोझ जनता पर लादने में सफल है। जब तक जनता शासक वर्ग की लूट का जवाब नहीं देती, यथास्थिति बरकरार रहेगी।

हमारा सबसे पहला काम है, सच को जाने और सच यह है कि देश की अर्थव्यवस्था के विकास के जो आँकड़े पेश किये गये थे, वे भी झूठे साबित हुए। मोदी सरकार के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यन ने सरकार के दावे के विपरित बताया कि 2011–12 से 2016–17 के बीच अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 4–5 प्रतिशत थी जबकि सरकारी दस्तावेज में इसे 7 प्रतिशत बताया गया था। यानी हर पहलू से देखने पर साफ हो जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मन्दी की गिरफ्त में फँस चुकी है और इस सच्चाई पर और पर्दा नहीं डाला जा सकता। अगर समय रहते इस समस्या का समाधान न किया गया तो यह देश के लिए बहुत विध्वंसक होगा।

क्या सट्टेबाजों और दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शोषण और लूट को रोके बिना मन्दी का कोई स्थायी समाधान सम्भव है ? क्या विदेशी निवेश, देश की सार्वजनिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों की निलामी से समाधान निकलेगा ? कोई भी समझदार इनसान इन सवालों का जवाब नहींमें ही देगा। इसलिए मन्दी से लड़ने के लिए सट्टेबाजों और दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रोत्साहित करने वाली नवउदारवादी नीतियों पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है। इसके बाद नवउदारवादी मॉडल जो मुनाफा केन्द्रित पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का नया अवतार है, उसे बदलने की जरूरत है। इसके स्थान पर मानवकेन्द्रित समाज व्यवस्था कायम करनी होगी।

मौजूदा शासक वर्ग के खिलाफ धैर्यपूर्ण और दीर्घकालिक संघर्ष के बिना यह सम्भव नहीं है। इस संघर्ष में जनता का सहयोग जरूरी है। इसलिए प्रगतिशील शक्तियों को चाहिए कि वे इस संघर्ष में व्यापक मेहनतकश जनता को साथ लाने के लिए निरन्तर प्रयास करें। जनता के जुझारू और संगठित संघर्ष से ही हालात बदलेंगे।